Some Books of Shri Harish Bhadani

Some Books of Shri Harish Bhadani

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

सपन की गली



सत्य का आभास

लगता है बहुत कड़ुवा
अन्तर के धूमिल सत्य का आभास,
क्योंकि मन तो हो गया है
युग-पुरानी परिधियों का दास।
संस्कारों के खड़ाऊ पहन कर
मन का पुजारी जा रहा है,
ताड़-पत्तों पर लिखी
किताबों की समाधि पर पहरा लगाने;
क्योंकि अब तो आत्मा की
हो गई बूढ़ी अवस्था ;
थम गई है
रग-शिराओं की रवानी,
जम गया है खून
जैसे पर्वती-सरिता
किसी हिमपत से ।
रह जाये ना
बिना अर्थ परिवर्तन,
मिट जये ना
कहीं मनुज की क्रियाशीलता,
इसलिये
हाथ में अब वह हरकत आ जाये
जो धरती की
व्याधि ग्रस्त परतें उधार कर
मिट्टी नई उलीचे,
नई बरखा का
पानी भिगो-भिगो कर
लोंदे नये बना दे,
नये-नये सांचों में
सजा सँवार कर
रूप नया ही दे दे
किसी निरूपम-निष्कलुष सृजन को !




तुम जागो मुस्काओ
नये भोर की वेला साथी -
तुम जागो - मुस्काओ ।
सपनों के विषधर समेट कर
लौट चली विष-कन्या रजनी,
अँधियारा सूने जादू की
बाँधे चला पिटारी आपनी।

बहुत दूर से आई है परभाती
निंदीया के दरवाजे ;
मोह बँधी पलकें उधार कर -
उठो और इठलाओ ।

देखो तो हो रहा गुलाबी,
उन्मन आसमान का आँगन
किरणें खोल रही धीरे से
लौट चली विष-कन्या रजनी,
सोई कलियों के मधुरानन

खेल रही है फूलों के आंचल में
भीनी गूँज भँवर की
उड़े पंछियों के कलरव सा -
तुम स्रुर साधो, गाओ।

नीचे का सूरज उठ आया
पर्वत की सीमा से ऊपर,
पीती है प्यासी हरियाली
धूप दूधिया हँस हँस जी भर।

सूनी राहों पर रुन झुन पायल की
चहल-पहल कोलाहल ;
कल की व्यथा भूल कर साथी -
नव आशा सहलाओ।



घृणा की घास


देखो !
अविश्वास का यह काला पहाड़,
जिसकी टेढ़ी-मेढ़ी फटी हुई रखों में
उगी हुई है घास घृणा की।
यह इतना ऊँचा
अतना कठोर कि
छिल जायेंगे तेरे नन्हें पांव,
और थक जायेगी
हर साँस नेह की।
इस कांटेदार घास में
उलझ-उलझ कर फट जायेगा
नभ-गंगा सी ममता का आँचल।
आ इस पहाड़ के,
एक ओर तू, एक ओर मैं,
आँसू की दारें
बनकर टकरायें ;
यह सही, कि
यूं मिट जायेगा
एक मुइट जायेगा
एक नहीं, सौ सौ घड़ियों का जीवन ;
मगर एक दिन
धरती का उर फट जायेगा
अविश्वास का यह काला पहाड़,
और कँटीली घास घृणा की डूब जायेगी !


मेरी कविते !


मेरी कविते ! तू वैभव की इन्द्र सभा में
बिकने कहीं चली मत जाना !
यह दुनिया तो रंग विरंगे
वैभव का दरबार है,
सस्ते-मंहगे लेन-देन का
बहुत बड़ा बाजार है।
हीरे मोती सब दरबारी
सोना ही सरदार है,
कुटनी चाँदी के हाथों में
कीमत का अखबार है।
यश के लोभी डोम खड़े हैं भीड़ जमाने-
मोटे-मोटे ढोल बजा कर ;
मेरी कविते ! तू इस सतरंग जाले में -
आकर कहीं छली मत जाना।
माँग रहे हैं कितने गाहक
तनी गुलाबी डोर को,
सब खरीदने को आकुल हैं
सावन की मधु-लोर को
बाँध रहे हैं ये भावों में
इन्द्र धनुष के छोर को,
आँक रहे हैं लिये कसौटी
ये संध्या की कोर को ।
तोल रहे हैं झलर मलर तारों की आभा-
ये अपनी मोती माला से ;
मेरी कविते ! दुकानों में सजी वासना,
अनकी गली चली मत जाना
संभव है बिक जाना तेरे
इस नीले आकाश का,
संभव है बँध जाना तेरे
रागों के मधुमास का!
थैली में छुप जाये शायद
बदरा तेरी आस का,
सूखा ही रह जाये आँगन
तेरे उर की प्यास का ।
ये सब व्यापारी हैं, सूदखोर, संगदिल हैं-
मेरी इस पीढ़ी के आदमी ;
मेरी कविते! ये तो मोहित भरी उमर पर
इनके कहे ठगी मत जाना।
शपथ तुम्हें है मेरी कविते !
गर बेचो अरमान को,
अपना सब कुछ खो देना
पर मत कोना ईमान को।
साधे रहो अन्त तक अपने
विश्वासों के बाणों को,
सौ सौ बार निछावर कर दो
सत पर अपने प्राण को।
मैं भी श्रम-सीकर में आशा घोल-घोल कर
नये भोर के गीत लिखूंगा ;
मेरी कविते ! तेरी तो ये ही राहें हैं-
दूजी डगर चली मत जाना।






सपन की गली से , प्रकाशक:- जुही-कुँज, 42, गनेशचन्द्र एवेन्यू, कलकत्ता- 700013 . संस्करण : 1961



2 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत प्रसन्नता हुई भादानी जी के नाम को ब्लाग पर देख कर। विगत दिनों मैं ने अपने ब्लाग 'अनवरत' पर उन के एक गीत की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की थीं। तो पाठकों ने उन की अन्य कविताओं की मांग की थी। मैं उसी दिन से उन से संपर्क करने को प्रयासरत था लेकिन उन का दूरभाष नम्बर नहीं मिल सका। आज अनायास ही यह ब्लाग देखा।
आप ब्लाग के नाम को देवनागरी में परिवर्तित करें। रोमन में यह विचित्र लग रहा है। एक टिप्पणी फार्म से शब्द पुष्टिकरण हटाएँ। बाकी फिर कभी। आवाजाही रहेगी ही।

डा ’मणि ने कहा…

परम आदरणीय ,भादानी जी
सादर प्रणाम
आज सुखद संयोग और सोभाग्य से आपके गलोग के दर्शन हुए
और एक से एक उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिलीं
आअडरणीय मैं कोटा , राजस्थान से ,डॉ. उदय 'मणि' कौशिक हूँ ,
आप शायद मेरे पिता जी जनकवि स्व . विपिन 'मणि' से परिचित होंगे
वो अपने अंतिम समय तक "जनवादी लेखक संघ "की कोटा इकाई के अध्यक्ष रहे
और कोटा के वरिष्ठ रचनाकार आदरणीय ब्रिजेन्द्र कौशिक जी से भी आशा है आप परिचित होंगे
पिता जी , ताऊ जी ( ब्रिजेन्द्र कौशिक ),आदि से आपके बारे मे सुनता तो बचपन से आ रहा हूँ
पर आपकी कविताओं को पढ़ने का अवसर आज मिल पाया , आभारी हूँ
अपने परिचय के लिए एक मुक्तक और एक ग़ज़ल के कुछ शेर भेज रहा हूँ
तथा आपकी आशीर्वाद स्वरूप प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी
मुक्तक

हमारी कोशिशें हैं इस, अंधेरे को मिटाने की
हमारी कोशिशें हैं इस, धरा को जगमगाने की
हमारी आँख ने काफी, बड़ा सा ख्वाब देखा है
हमारी कोशिशें हैं इक, नया सूरज उगाने की ..


बहुत बदलाव आएगा...(ग़ज़ल )

न होते आज तक हम लोग भूखे और प्यासे से
बहलना छोड़ देते हम अगर झूठे दिलासे से

तमाशा कह रहे हो तो ,तमाशा ही सही लेकिन
बहुत बदलाव आएगा , हमारे इस तमाशे से

अभी हंस लो हमें छुटपुट पटाखे सा बताकर तुम
तुम्हारी धज्जियाँ उड़ जाएँगी इनके धमाके से

हमें झोंका समझते हो अभी तक आपने शायद
किले गिरते नहीं देखे , हवाओं के तमाचे से ...


डॉ.उदय 'मणि'कौशिक
umkaushik@gmail.com

पूजनीय पिता जी एवं मेरी रचनाओं हेतु देखिएगा ( कृपासवरूप )
http://mainsamayhun.blogspot.com


आदरणीय ब्रिजेन्द्र कौशिक जी की रचनाओं का भी एक ब्लॉग अभी बनाया है
http://shwetpatr.blogspot.com
देखिएगा इसे भी

सादर प्रणाम ...