Some Books of Shri Harish Bhadani

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शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

हरीश भादानी: विद्रोही रचनाशीलता के सतरंगी आयामों एक बड़ा कवि

- अरुण माहेश्वरी


हरीश जी, उनके संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व से अपने लंबे और गहरे परिचय के चलते उनके बारे में कुछ भी लिखना जितना आसान और एक हद तक उबाऊ जान पड़ता है, उतना ही कोरे पिष्टपेषण के बजाय लीक से हट कर नया कुछ खोजने-कहने का आग्रह इस सारे मामले को थोड़ा चुनौतीपूर्ण भी बना देता है। ‘60-’70 के दशक के रूमानी, ‘पवित्र पापी’ की ओज के साथ अपने एक खास प्रभा-मंडल वाले प्रेम और विद्रोह के आपाद-मस्तक कवि हरीश भादानी को कौन नहीं जानता। कवि सम्मेलनों में उनके ठाठ को देख कर किसी ने उन्हें राजस्थान का नीरज और बच्चन कहा था, तो उनसे दो कदम आगे बढ़ कर बारीक मिजाज आधुनिक कवि ने कविता की ष्रेष्ठता का परचम लहराते हुए कविता की इस अनोखी गायकी के लिये उनकी वाह-वाही की थी।
लेकिन यह सब बातें पुरानी हो चुकी हैं। लगभग चार दशक पुरानी। ये बातें एक हद तक आख्यानों और शायद स्मृतियों का रूप ले चुकी है। जन-आंदोलनों की अग्रिम पांत में खड़े एक जन कवि के रूप में भी हरीश जी की पहचान बने तीन दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है। ‘वातायन’ के संपादक हरीश जी की यादें भी ‘60 से लेकर प्रायः ’80 के जमाने तक चले जोशीले लघु पत्रिका आंदोलन की यादों की तरह धुंधला गयी हैं। उलट कर कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि न वह युग रहा, न वैसे ठेले-नुक्कड़ और इसीलिये न रही ‘ऐ मुहब्बत जिंदाबाद’ वाली ‘जांबाजी’ की मदहोश कर देने वाली किस्सागोई की अहमियत। ‘अधूरे गीत’(1959),‘सपन की गली’(1961) के गीत और ‘हंसिनी याद की’(1962) की रूबाइयां, जिनकी जुबान पर तब थे, आज भी हैं और आगे भी सदा उनके फुरसत के क्शणों के खालीपन को अनोखी मानवीय अनुभूतियों से आबाद रखेंगे। ये मानव स्वभाव की मूलभूत वृत्तियों, साहित्य के स्थायी सत्यों की तरह लंबे-लंबे काल तक लोगों को रिझायेंगे, रुलायेंगे और अपने में डुबायेंगे भी। और कहना न होगा कि हरीश जी के इस स्थायी सत्य को कभी कोई नकार नहीं पायेगा। किसी उद्यमी के हाथों पड़ कर आधुनिक तकनीक से समृद्ध संगीत के साथ इनका फिर-फिर जन्म और संस्करण हो, तो अचरज की बात नहीं है। कहा जा सकता है कि हरीश जी के साहित्य-शैशव की ये रचनाएं शैशव की मासूमियत और ताजगी के साथ ही कवि हरीश भादानी के व्यक्ति-सत्व का एक निष्चित परिचय देती हैं, जो नैरंतर्य के बिल्कुल पतले धागे की तरह ही क्यों न हों, उनके परवर्ती दिनों की रचनाओं के आवेग और विस्तार के मर्म को समझने में किसी के लिये भी सहायक बन सकती हैं। प्रेम की विस्मृतियों और सुधियों के एक विस्तृत फलक में कहीं लोरी सुनाती तो कहीं कदम-ताल मिलाती अनगिन धुनों के उस रचना संसार को सिर्फ रूमानी बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है। एक कठोर सामंती परिवेश में वह किसी मुक्त मन के विद्रोही स्वरों का ऐसा प्रवाह था जिसमें डुबकी लगा कर आज भी बड़ी आसानी से मानवीय और जनतांत्रिक संवेदनाओं के पूण्य को अर्जित किया जा सकता है। जिन्होंने भी हरीश जी के पहले गीत संकलन ‘अधूरे गीत’ के ‘तेरी मेरी जिन्दगी के गीत एक है’, ‘रही अछूती सभी मटकियां’, ‘सभी सुख दूर से गुजरे’, प्रिये अधूरी बात’ तथा दूसरे संकलन ‘सपन की गली’ के ‘सात सुरों में बोल’, सोजा पीड़ा मेरे गीत की’ की तरह के गीतों को सुना है, उनके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते हैं। प्रेम और सौंदर्य के ये गीत अपने बोल और अपनी धुनों से भी किसी भी युवा मन के प्रिय क्शणों के साथी बन सकते हैं।

हरीश जी का यह रचना संभार हमारी तो साहित्यिक रुचियों के जन्म काल और युवा वय के नितांत आत्मीय और बेहद आनंददायी क्शणों की स्मृतियों से जुड़ा हुआ है और सही कहूं तो अपने साहित्य-संस्कार का आधार है। इसीलिये इन रचनाओं के सम्मोहक वृत्तांत में मैं अपने को खोना नहीं चाहता। अगर इनकी ओर कदम बढ़ा दिये तो न जाने कहां का कहां चला जाऊं और इस भटकाव के चलते जिस खास बात की ओर ध्यान आकर्शित करने के लिये मैंने इस टिप्पणी को लिखने का निष्चय किया, शायद उसे ही भूल जाऊं।
न मैं ‘सुलगते पिंड’(1966) और ‘एक उजली नजर की सूईं’(1966) की महानगरीय छौंक लगी संवेदनाओं की कविताओं और गीतों की ही बात करना चाहता हूं, जो तब भी नागर जीवन के अजनबीपन को अपनी छैनी के प्रहारों या फिर आत्मीय आलींगनों से दूर करने और जिंदगी की जिल्द के किसी नये सफे को पढ़ने का सपना पाले हुए थी। यह समय था हरीश जी के मूल विद्रोही तेवर पर कम्युनिस्ट दर्शन के मुलम्मे की चमक का। अब विद्रोही प्रेमी ‘ड्योढ़ी के रोज ब रोज शहर जाने और कारखाने के सायरन की सीटी से बंधी एक नियत जिंदगी जीने के विच्छिन्नताबोध की पीड़ा के साथ ‘क्षण-क्षण की छैनी’ से काट कर चीजों को परखने की तरह कड़े से कड़े प्रष्नों से व्यवस्था को बींधने वाले विद्रोही मजदूर से एकात्म हो जाता है। ‘एक उजली नजर की सुई’ में उनके इस दौर के कई अमर गीत संकलित है, जैसे - ‘मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘क्षण-क्षण की छैनी से काटो तो जानूं’, ‘ऐसे तट हैं क्यों इन्कारें’, संकल्पों के नेजों को और तराशो’, ‘थाली भर धूप लिये’ और ‘सड़क बीच चलने वालों से’। ये सघन और जटिल महानगरीय बोध के साथ नये, बेहतर और मानवीय समाज के निर्माण की बेचैनी के गीत है। इन गीतों में उकेरे गये आधुनिक भावबोध के बिंब गीत और कविता के बीच श्रेष्ठता की बहस को बेमानी कर देने के लिये काफी है।
बहरहाल, मुझे लगता है कि यह वैचारिक प्रतिबद्धता, महानगरीय अवबोध और झकझोर देने वाले प्रश्नों को उठाने की बेचैनी की कहानी सत्तर-बहत्तर तक आते-आते कुछ खत्म सी होती दिखाई देती है। ‘एक उजली नजर की सुई’ का प्रकाशन 1966 में हुआ था। इसके बाद लंबे 13 वर्शों के उपरांत प्रकाशित हुई हरीश जी की लंबी कविता ‘नष्टोमोह’ को सतह से देखने पर कोई भी उसे सत्तर के जमाने के पूरे दृष्यपट के साथ आत्मालाप करने वाली उसी काल की रचना दृष्टि का किंचित विस्तार कह सकता हैं। लेकिन यदि कोई इसकी सतह की गहराई में जाए तो पता चलेगा कि संभवतः उस पूरे काल के साथ किया गया यह आत्मालाप उस काल के विद्रोही आवेग को एक शानदार श्रद्धांजलि का उपक्रम भर था। यह सच है कि ‘66 से ‘79 के बीच के इसी दौर में सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल की परिस्थितियों ने ‘रोटी नाम सत है’ के गीतों के रचयिता, हरीश भादानी के एक नये नुक्कड़कवि के रूप को भी जन्म दिया। सन ‘75 का आंतरिक आपातकाल और उसके पहले और बाद की उत्तेजक और चुनौती भरी राजनीतिक परिस्थितियों का दौर कुछ अलग ही था। इसमें ‘रोटी नाम सत है’ के जुझारू गीतों ने जन कविता के अपने एक अलग ही इतिहास की रचना की थी। हरीश जी ने अपने साहित्यिक-राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दौर में ‘भारत की भूखी जनता को अपना लेटिनेंट चाहिए’ की तरह के जोशीले गीत और रूबाइयां आदि लिखी थी। ‘रोटी नाम सत है’ के गीतों को उसी हरीश भादानी का कहीं ज्यादा चेतनासंपन्न, कल्पनाप्रवर और परिपक्व पुनर्जन्म कहा जा सकता है। ‘रोटी नाम सत है’, ‘राज बोलता सुराज बोलता’ तथा ‘बोल मजूरे हल्ला बोल’ की तरह के उनके गीत आपातकाल के खिलाफ देश भर के जनवादी आंदोलन के अभिन्न अंश थे। कहने का मतलब यह कि यह एक अलग प्रकार की लड़ाइयों का दौर था और शायद तब बाकी सब कुछ स्थगित करके सड़कों पर उतर आना ही कवि और कविता की मजबूरी थी।

लेकिन मैं हरीश जी के रचनाकर्म के इस, और ऐसे सभी दौरों के खात्मे की बात कर रहा था। ‘नष्टोमोह’ के संदर्भ में कह रहा था कि यह शायद ऐसे दौरों के विस्तृत आख्यान के साथ उन्हें बाकायदा अलविदा कहने की तरह का एक उपक्रम था। इसी सिलसिले में मैं पहले ‘वातायन’ पत्रिका की बात करना चाहूंगा, जो एक रूमानी, स्वप्नदर्शी और प्रतिबद्ध कवि हरीश जी के साहित्यिक क्रिया-कलापों की पहचान थी। उनके संपादन में ‘60 के जमाने से लंबे काल तक नियमित मासिक और फिर कुछ दिनों तक अनियतकालीन निकली यह पत्रिका ‘73 तक आते-आते पूरी तरह बंद होगयी। जानकार इस पत्रिका के बंद होने के अनेक कारणों को गिना सकते हैं, लेकिन लगभग डेढ़ दशक तक लगातार निकली इस पत्रिका से हरीश जी के इसप्रकार मूंह मोड़ लेने का कितना संबंध उनके ‘नष्टोमोह’ की व्यापक पृष्ठभूमि से था, यह सचमुच एक गवेषणा का विषय हो सकता है।
बहरहाल, आज, हरीश जी की 75वीं सालगिरह के इस मौके पर मैं जिस बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, वह सन् ‘75 के पहले के कवि की बात नहीं है। मेरा ध्यान उनके प्रारंभिक दो दशकों के रचनाकाल के बाद के इन तीन दशकों के रचनाकाल की ओर है। यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है कि लगभग तीन दशक पहले ही जिस कवि की शख्सियत की एक संपूर्ण प्रतिमा विकसित होकर लोगों के दिलों में रच-बस गयी थी, जिसने समाज को ढेरों अमर रचनाओं की सौगात दी, वह कवि बाद में और तीन दशकों तक अपनी ही उस विशाल प्रतिमा की छाया तले लिखता रहा, लगातार लिखता रहा और गौर करने लायक है कि अपने अतीत से मोहाविष्ट होकर खुद को ही दोहराते हुए नहीं, बल्कि उससे बिल्कुल भिन्न परिदृष्य और संदर्भों के साथ एक नये आवेग और नयी भाषा में किसी और ही नये सत्य के संधान का संकेत देता हुआ लिखता रहा।

‘नष्टोमोह’ का आवेशित कवि जो कहता है कि "उनके हाथ जगन्नाथ/उनके पांव वामन/उनका रोम-रोम समझदार/वे तीनों गुण/वे पांचों तत्व/वे संदीपन द्रोणाचार्य/चाणक्य बिस्मार्क/वे कलाएं और विज्ञान/जनक जननी भी/रिश्ते-अ-रिश्ते भी वे/औचित्य अनौचित्य भी वे/वे इकाई में दहाइयां/और मैं-/एक मान लिया गया कुछ भी नहीं"..."एक पैमाना उठाए/समझाने लगते हैं वे मुझे/एक फार्मूला-दहाई का गुणक/गुणनफल बटा मियादी हुंडी/या चैक/बराबर जीवित शरीर...अगवानी थाली/निहोरे और बिछौना/गदराया शरीर/आदि अनादि भूखों की /भौतिक अधिभौतिक/सभी संक्रामक व्याधियों की रामबाण दवा/मिलती है उसे/ आता हो जिसे /लीलावती रचित भिन्न/लंगड़ी भिन्न हल कर लेना, उसे खनखना देना।" और इनके मोह से मुक्त हो जिसे अपने वास्तविक रूप और कर्त्तव्य का बोध हो गया है, वह संशयमुक्त कवि विद्रोह की तमाम परंपराओं का खुद को अंशी मानते हुए भी अंत में कहता हैं कि "मुझे ही बनना है/आदमी के लिये/आदमी की सभ्यता, उसकी संस्कृति/और जब करने लगूंगा रचाव/आदमीः आरम्भ/मुझ जैसी दुनियाओं के लिये/हम खयाल अजीज!/तुम्हें ही दूंगा आवाज/संयोग लिये/गर्भा लिये जाने मेरे वर्तमान से /समय नहीं/शरीर नहीं/ रोशनी! शब्द! संबोधन!"

मेरी कोशिश इस नयी रोशनी, शब्द और संबोधन के साथ खुद ही आदमी की सभ्यता और संस्कृति बनने का हौसला रखने वाले कवि की लगभग तीन दशकों तक फैली परवर्ती रचनाशीलता की ओर ध्यान आकर्षित करने की है, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, यह कत्तई उनकी पूर्व-रचनाशीलता का दोहराव नहीं है। इसे यदि पूर्व का विपरीत न भी कहा जाए तो पूर्व से भिन्न तो कहना ही होगा, और इसीलिये यह बेहद गंभीर, जरूरी और जिम्मेदारीपूर्ण जांच की मांग करता है। इसके अभाव में कवि हरीश भादानी के कृतित्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा अव्याख्यायित रह जायेगा और उनके व्यक्तित्व का कभी भी समग्र आकलन नहीं हो पायेगा।

नष्टोमोह के दो वर्श बाद ही 1981 में हरीश जी के गीतों का एक नया संकलन प्रकाशित होता है, ‘खुले अलाव पकाई घाटी’। तीन भागों में विभाजित इस संकलन के पहले भाग का शीर्शक है - "अपना ही आकाश...", लेकिन "अपना ही आकाश बुनूं मैं" गीत दूसरे भाग में शामिल है। नष्टोमोह में "मुझे ही बनना है/आदमी के लिये/आदमी की सभ्यता, उसकी संस्कृति" का जो संकल्प जाहिर किया गया है, ‘अपना ही आकाश बुनूं’ उसीका आगे फैलाव है। इस गीत की पंक्तियां हैं "सूरज सुर्ख बताने वालो/सूरजमुखी दिखाने वालो/...पोर-पोर/ फटती देखू मैं/केवल इतना सा उजियारा/रहने दो मेरी आंखों में/...तार-तार/ कर सकू मौन को/केवल इतना शोर सुबह का/भरने दो मुझको सांसों में/ स्वर की हदें बांधने वालो/पहरेदार बिठाने वालो/...अपना ही/ आकाश बुनूं मैं/केवल इतनी सी तलाश ही/भरने दो मुझको/ पांखों में/मेरी दिशा बांधने वालो/दूरी मुझे बताने वालो।"

सवाल उठता है कि हरीश जी यहां किन बंधनों, वर्जनाओं और निर्देशों से अपनी मुक्ति की मांग कर रहे हैं? कहना न होगा, यह एक सौ टके का सवाल है, जो हरीश जी के परवर्ती सृजन और उनकी रचनाशीलता की ऊर्जा को जानने की कुंजी भी बन सकता है। इसे एक प्रकार से नकार का नकार भी कहा जा सकता है। हमेशा ही हरीश जी की सारी ऊर्जस्विता और उनकी रचनाओं के सौन्दर्य का स्रोत किसी भी रूमानी कवि की तरह तमाम बाधाओं और बंधनों को नकारने में रहा है, लेकिन उम्र के इस नये मुकाम पर अब पुनः वे किस चीज को नकार कर फिर एक बार अपनी मुक्ति की कामना करते हैं, यह सवाल हरीशजी के काव्य के किसी भी अध्येता के लिये काफी तात्पर्यपूर्ण हो जाता है।

इस सवाल के साथ जब हम हरीश जी के परवर्ती रचनाकर्म की ओर नजर डालते हैं तो उसमें साफ तौर पर जो तीन चीजें दिखाई देती है, उन्हें रेखांकित करके ही मैं अपनी इस टिप्पणी की इतिष्री करूंगा। इनमें पहला है, गहरा विषाद- अपना ही आकाश बुनने से पैदा हुए अकेलेपन और सन्नाटे का ऐसा घटाटोप जिसमें सदा उत्साहित रहने वाले, समाज को बदलने का आह्वान करने वाले रचनाकार की सांसे घुट रही है, लेकिन वह इसे इंकार नहीं कर सकता है। इसीलिये यह सन्नाटा भी एक प्रकार के अद्भुत, सम्मोहक सृजन का हेतु बनता है। इसे ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ के गीतों में साफ देख सकते है, जब ‘याद नहीं है’ गीत में कवि कहता है- "चले कहां से /गए कहां तक/याद नहीं है/...रिस-रिस झर-झर ठर-ठर गुमसुम/ झील होगया है घाटी में/हलचलती बस्ती में केवल/एक अकेलापन पांती में/ दिया गया या/ लिया शोर से / याद नहीं है/"। इसी संकलन में विशाद के चरम क्शणों का एक गीत है: "टूटी गजल न गा पाएंगे"। "सांसों का/ इतना सा माने/स्वरों-स्वरों/ मौसम दर मौसम/हरफ-हरफ/ गुंजन दर गुंजन/ हवा हदें ही बांध गई है/ सन्नाटा न स्वरा पाएंगे/ यह ठहराव न जी पाएंगे/...आसमान उलटा उतरा है/ अंधियारा न आंज पाएंगे/...काट गए काफिले रास्ता/ यह ठहराव न जी पाएंगे।"

गौर करने लायक बात है कि इस दमघोंटू ठहराव की तीव्र अनुभूतियों के बीच हरीश जी अपने नये संबंधों के विकास और सोच की नयी दिशाओं के निर्माण की ओर प्रवृत्त होते हैं। और ये नये संबंध है अपनी मरुभूमि की धरती के साथ नये संपर्कों के संबंध। "मौसम ने रचते रहने की /ऐसी हमें पढ़ाई पाटी/...मोड़ ढलानों चैके जाए/आखर मन का चलवा/अपने हाथों से थकने की/कभी न मांडे पड़वा/कोलाहल में इकतारे पर/एक धुन गुंजवाई घाटी" या "सुपरणे उड़ना मन मत हार" की तरह के भावबोध के साथ निरंतर रचनाशील बने रहने की अपनी नैसर्गिकता को कायम रखने की जद्दोजहद में ही उनके इन नये संबंधों और विचार के नये क्षेत्रों का उन्मेष होता है। और, हम देखते हैं, सन्नाटे और अकेलेपन के उपरोक्त अनोखे, मन को गहराई तक छू देने वाले गीतों के साथ ही सामने आता है हरीश जी की रचना शक्ति का एक और उत्कृष्ट नमूना - "रेत में नहाया है मन"। "इन तटों पर कभी/धार के बीच में/डूब-डूब तिर आया है मन/...गूंगी घाटी में/ सूने धोरों पर‘ एक आसन बिछाया है मन/...ओठ आखर रचे/ शोर जैसे मचे/ देख हिरणी लजी/ साथ चलने सजी/ इस दूर तक निभाया है मन। /"। धोरों की धरती के सौन्दर्य पर इससे खूबसूरत आधुनिक गीत क्या होगा।

अब तक ‘शहरीले जंगल’ में खोये मन के इस प्रकार अपनी धरती के रेत के समंदर में डूबने-तिरने, उस पर आसन बिछा कर खोजाने का यह सारा उपक्रम अपने ही अतीत से अलगाव से उपजे हरीश जी के सन्नाटे को एक नयी सृजनात्मक दिशा में मोड़ता है और हम पाते हैं "सन्नाटे के शिलाखंड पर"(1982), "एक अकेला सूरज खेले", "आज की आंख का सिलसिला"(1985), "विश्मय के अंशी हैं" (1988) कविता संकलन और "पितृकल्प"(1991) तथा "मैं-मेरा अष्टावक्र"(1999) की तरह की लंबी कविताओं का एक विशाल रचना भंडार।

कहना न होगा कि लगभग अढ़ाई दशकों तक फैली हरीश जी की यह रचनाशीलता दूसरे अर्थों में अपनी जड़ों की तलाश की उनकी लंबी यात्रा का साक्षी है। इसी सिलसिले में भाषा के स्तर पर भी उनकी कविताओं में एक बड़ा परिवर्तन आता है। ‘बांथा में भूगोल’ (1984), "खण-खण उकल्या हूणिया" तथा "जिण हाथां आ रेत रचीजै" की तरह के राजस्थानी भाषा की कविताओं के संकलन सामने आते हैं और हिंदी की कविता भी स्थानीय भाषा और संदर्भों तथा निहायत निजी प्रसंगों से लबरेज होकर खुद अपना एक अलग संसार गढ़ लेती है। इस काल के हरीश भादानी की रचनाएं हिंदी के साधारण पाठक के लिये बहुत कुछ अपनी भाषाई संरचना की वजह से ही जैसे एक अबूझ पहेली बन कर रह गयी हैं।

मजे की बात यह है कि अपनी भाषा, अपनी धरती की स्थानिकता के इस तीव्र आग्रह के साथ अपनी जड़ों की तलाश के हरीश जी के इस रूझान का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू सांस्कृतिक जड़ों की तलाश का रहा है। इसीके उपक्रम में प्राचीन पौर्वात्य साहित्य, वेदों, उपनिशदों और मिथकीय आख्यानों में उनके डूबने-उतरने और शायद कहीं-कहीं उनके रहस्यों में खो जाने का भी रहा है। मिथकों से हरीश जी पहले भी पूरी तरह मुक्त नहीं रहे। बिल्कुल प्रारंभिक ‘सपन की गली’ की रूमानी कविताओं के साथ ही ‘हे शिव प्रथम मनीशी’ की तरह की रचना भी संकलित है। बाद के दिनों में ‘सड़कवासी राम’ और ‘गोरधन’ की तरह के उनके अमर गीत मिथकों के सृजनात्मक नवीनीकरण के महत्वपूर्ण उदाहरण है। लेकिन "विस्मय के अंशी हैं" के एक अध्याय में जिस प्रकार वेदों की कविताओं का उल्था किया गया है और अभी हाल में प्रकाशित "अखिर जिज्ञासा" में उपनिषदों और धर्म-ग्रंथों की प्राचीन कथाओं पर जिसप्रकार की प्रवचनकारी जिज्ञासाएं व्यक्त की गयी है, यह उनके व्यक्तित्व में एक सर्वथा नया संयोजन कहलायेगा। हरीश जी के इस नये दौर के गीत, "जो पहले अपना घर फूंके" का वह हिस्सा जिसमें राम, कृष्ण, बुद्ध, कबीर और रवीन्द्रनाथ के रास्ते पर चलने का आह्वान है, सांस्कृतिक जड़ों की खोज में लगी खास (टिपिकल) रचनाशीलता की ही उपज हो सकती है। लेकिन सच कहा जाए तो हरीश जी की इस सांस्कृतिक जड़ों की खोज की यात्रा से अभी तक कुछ ऐसा अभिनव और अनूठा सृजन सामने नहीं आया है जो उनके पूर्व के सभी दौरों की चुनिंदा अमर रचनाओं की भांति स्फुर्लिंग सी चमकती हुई पाठकों के ह्नदय में बसे और उसे प्रकाशित करें। जड़ों की जड़ताओं प्रति अपनी तमाम शंकाओं के बावजूद उनसे ऐसी श्रेष्ठ रचना की हमारी प्रतीक्षा बनी रहेगी।

आज का समय वैश्विक चुनौतियों का समय है। आज के रचनाकार से यह एक दूसरे स्तर की बौद्धिक प्रखरता की उम्मीद करता है। इन चुनौतियों का जवाब किसी उदासीनता या अतीतोन्मुखी खोह में खोजना सरल हो सकता है, सही नहीं हो सकता। हरीश जी की इस 75वीं वर्षगांठ के मौके पर हम उनके रचनात्मक आवेग में और भी ज्यादा तीव्रता की कामना करते हैं। उनके जिस आवेग और विवेक ने अब तक अनेक प्रकार के लबादों को उतार फेंकने का साहस दिखाया है, बार-बार अपनी प्रासंगिकता को साबित किया है, वही भाव-प्रवणता और आलोचनात्मक विवेक उनमें आगे भी बना रहे, यही हमारी प्रार्थना हैं।

1 टिप्पणी:

डा ’मणि ने कहा…

आदरणीय भादानी जी के बारे मे विस्तार से बताने के लिए सभी पाठकों की ओर से आपका धन्यवाद करता हूँ
मैं तो इनके (भादानी जी )के लिए यही कह सकता हूँ की
" ये सूरज हैं इनकी ज़रूरत है हमको
इनसे रोशन है सारा शहर देखता हूँ
सच-मुच मेरा दिल बहुत कँपता है
मैं जब इनकी ढलती उमर देखता हूँ "

डॉ.उदय 'मणि' कौशिक
कोटा , राजस्थान
वरिष्ठ जनकवि स्व. विपिन 'मणि' की उत्कृष्ट जनवादी रचनाओं के लिए देखें
http://mainsamayhun.blogspot.com