Some Books of Shri Harish Bhadani

Some Books of Shri Harish Bhadani

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

विद्रोही रचनाशीलता के एक कवि श्री हरीश भादानी जी नहीं रहे़......

लेखक: शम्भु चौधरी, कोलकाता



Harish Bhadaniकोलकाता:(दिनांक 2 अक्टूबर 2009): अभी-अभी समाचार मिला है कि राजस्थान के 'बच्चन' कहे जाने वाले प्रख्यात जनकवि हरीश भादानी का आज तड़के चार बजे बीकानेर स्थित आवास पर निधन हो गया। वे 76 वर्ष के थे। हरीश भादानी अपने पीछे तीन पुत्रियां और एक पुत्र छोड़ गए हैं। वे पिछले कुछ दिनों से अस्‍वस्‍थ चल रहे थे। शुक्रवार को उनकी देह अंतिम दर्शन के लिए उनके आवास पर रखी जाएगी। शनिवार को उनकी इच्छा के अनुरूप अंतिम संस्कार के स्थान पर उनके पार्थिव शरीर को सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए सौंपा जाएगा। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे भादानी ने हिन्दी के साथ राजस्थानी भाषा को भी संवारने का कार्य किया। राजस्‍थान के वि‍गत चालीस सालों के प्रत्‍येक जन आंदोलन में उन्‍होंने सक्रि‍य रूप से हि‍स्‍सा लि‍या था। राजस्‍थानी और हिंदी में उनकी हजारों कवि‍ताएं हैं। ये कवि‍ताएं दो दर्जन से ज्‍यादा काव्‍य संकलनों में फैली हुई हैं। मजदूर और कि‍सानों के जीवन से लेकर प्रकृति‍ और वेदों की ऋचाओं पर आधारि‍त आधुनि‍क कवि‍ता की प्रगति‍शील धारा के नि‍र्माण में उनकी महत्‍वपूर्ण भूमि‍का थी। इसके अलावा हरीशजी ने राजस्‍थानी लोकगीतों की धुनों पर आधारि‍त उनके सैंकड़ों जनगीत लि‍खें हैं जो मजदूर आंदोलन का कंठहार बन चुके हैं।


आज जैसे ही राजस्थान से श्री सत्यनारायण सोनी जी का फोन मिला, मैं स्तब्ध रह गया। हाथों-हाथ मैंने श्री अरुण माहेश्वरी से बात की, तो उन्होंने बताया कि आज सुबह ही उनका शरीर शांत हो गया। पिछले सप्ताह ही श्री भादानी जी अपने नाती (अरुण जी के लड़के) के विवाह में शरीक होने के लिये कोलकाता आये थे। उस समय आप स्वस्थ्य से काफी कमजोर दिख रहे थे परन्तु नाती के विवाह की खुशी और सरला के प्रेम ने उसे कोलकाता खिंच लाया था। श्री अरुण जी ने बताया कि पिछले 26 सितम्बर को ही वे राजस्थान लोट गये थे।


श्री हरीश भादानी का जन्म 11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में हुआ। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादन भी किया। कोलकात्ता से प्रकाशित मार्कसवादी पत्रिका 'कलम' (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें प्रकाशित हो चुकि है। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से "मीरा" प्रियदर्शिनी अकादमी", परिवार अकादमी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से "राहुल" । के.के.बिड़ला फाउंडेशन से "बिहारी" सम्मान से सम्मानीत किया जा चुका है। इनके व्यक्तित्व ने बीकानेर नगर के होली के हुड़दंग में एक नई दिशा देने का प्रयास किया। खेड़ा की अश्लील गीतों के स्थान पर भादानीजी ने नगाड़े पर ग्रामीण वेशभूषा में सजकर समाज को बदलने वाले गीत गाने की परम्परा कायम की, उससे बीकानेर के समाज में बहुत अच्छा प्रभाव परिलक्षित हुआ था। उनका सरल और निश्चल व्यक्तित्व बीकानेर वासियों को बहुत पसन्द आता है। भादानीजी में अहंकार बिल्कुल नहीं है। इनके व्यक्तित्व में कोई छल छद्म या चतुराई नहीं है।

हरीश भादानी ने अपने परिवारिक जीवन में भी इसी प्रकार की जीवन दृष्टि रखी है और ऐसा लगता है कि उनको यह संस्कार अपने पिता श्री बेवा महाराज से प्राप्त हुए हैं। उनके गले का सुरीलापन भी उनके पिता की ही देन समझी जानी चाहिए। लेकिन उनके पिताश्री के सन्यास लेने से भादानीजी अपने बचपन से ही काफी असन्तुष्ट लगते हैं और इस आक्रोश और असंतोष के फलस्वरूप उनका कोमल हृदय गीतकार कवि बना। छबीली घाटी में उनका भी विशाल भवन था। वह सदैव भक्ति संगीत और हिंदी साहित्य के विद्वानों से अटा रहता था। हरीश भादानी प्रारंभ में रोमांटिक कवि हुआ करते थे। और उनकी कविताओं का प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर एकसा पड़ता था। भादानी के प्रारंभिक जीवन में राजनीति का भी दखल रहा है। लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया हरीश भादानीजी एक मूर्धन्य चिंतक और प्रसिद्ध कवि के रूप में प्रकट होते गए। हरीश भादानीजी को अभी तक एक उजली नजर की सुई 1967-68 एवं सन्नाटे के शिलाखण्ड पर 1983-84 पर सुधीन्द्र काव्य पुरस्कार राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, द्वारा सुधीन्द्र पुरस्कार एक अकेला सूरज खेले पर मीरा पुरस्कार, पितृकल्प पर बिहारी सम्मान महाराष्ट्र, मुम्बई से ही प्रियदर्शन अकादमी से पुरस्कृत, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर से विशिष्ठ साहित्यकार के रूप में सम्मानित किए जा चुके हैं।


11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में आपका जन्म हुआ। आपकी प्रथमिक शिक्षा हिन्दी-महाजनी-संस्कृत घर में ही हुई। आपका जीवन संघर्षमय रहा । सड़क से जेल तक कि कई यात्राओं में आपको काफी उतार-चढ़ाव नजदीक से देखने को अवसर मिला । रायवादियों-समाजवादियों के बीच आपने सारा जीवन गुजार दिया। आपने कोलकाता में भी काफी समय गुजारा। आपकी पुत्री श्रीमती सरला माहेश्वरी ‘माकपा’ की तरफ से दो बार राज्यसभा की सांसद भी रह चुकी है। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादक भी रहे । कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका ‘कलम’ (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी प्रोढ़शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें राजस्थानी में। राजस्थानी भाषा को आठवीं सूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता। ‘सयुजा सखाया’ प्रकाशित। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से ‘मीरा’ प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी(महाराष्ट्र), पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से ‘राहुल’, । ‘एक उजली नजर की सुई(उदयपुर), ‘एक अकेला सूरज खेले’(उदयपुर), ‘विशिष्ठ साहित्यकार’(उदयपुर), ‘पितृकल्प’ के.के.बिड़ला फाउंडेशन से ‘बिहारी’ सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है । आपके निधन के समाचार से राजस्थानी-हिन्दी साहित्य जगत को गहरा आघात शायद ही कोई इस महान व्यक्तित्व की जगह ले पाये। हम ई-हिन्दी साहित्य सभा की तरफ से अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं एवं उनकी आत्मा को शांति प्रदान हेतु ईश्वर से प्रथना करते हैं।

हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकें:




अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959 बीकानेर।
सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता।
हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963।
एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर)
सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966
नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981
सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर1982।
एक अकेला सूरज खेले (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1983 (दूसरा संस्करण-कलासनप्रकाशन, बीकानेर 2005)
रोटी नाम सत है (जनगीत) कलम प्रकाशन, कलकत्ता 1982।
सड़कवासी राम (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1985।
आज की आंख का सिलसिला (कविताएं) कविता प्रकाशन,1985।
विस्मय के अंशी है (ईशोपनिषद व संस्कृत कविताओं का गीत रूपान्तर) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1988ं
साथ चलें हम (काव्यनाटक) गाड़ोदिया प्रकाशन, बीकानेर 1992।
पितृकल्प (लम्बी कविता) वैभव प्रकाशन, दिल्ली 1991 (दूसरा संस्करण-कलासन प्रकाशन, बीकानेर 2005)
सयुजा सखाया (ईशोपनिषद, असवामीय सूत्र, अथर्वद, वनदेवी खंड की कविताओं का गीत रूपान्तर मदनलाल साह एजूकेशन सोसायटी, कलकत्ता 1998।
मैं मेरा अष्टावक्र (लम्बी कविता) कलासान प्रकाशन बीकानेर 1999
क्यों करें प्रार्थना (कविताएं) कवि प्रकाशन, बीकानेर 2006
आड़ी तानें-सीधी तानें (चयनित गीत) कवि प्रकाशन बीकानेर 2006
अखिर जिज्ञासा (गद्य) भारत ग्रन्थ निकेतन, बीकानेर 2007

राजस्थानी में प्रकाशित पुस्तकें:


बाथां में भूगोळ (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1984
खण-खण उकळलया हूणिया (होरठा) जोधपुर ज.ले.स।
खोल किवाड़ा हूणिया, सिरजण हारा हूणिया (होरठा) राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति जयपुर।
तीड़ोराव (नाटक) राजस्थानी भाषा-साहित्य संस्कृति अकादमी, बीकानेर पहला संस्करण 1990 दूसरा 1998।
जिण हाथां आ रेत रचीजै (कविताएं) अंशु प्रकाशन, बीकानेर।

इनकी चार कविताऎं:-


1.
बोलैनीं हेमाणी.....
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थेंघड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो? [‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]


2.
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!


3.
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
पसर गया है / घेर शहर को
भरमों का संगमूसा / तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
जड़े सुराखो तो जानूँ! / फेंक गया है
बरफ छतों से
कोई मूरख मौसम
पहले अपने ही आंगन से
आग उठाओ तो जानूँ!
चैराहों पर
प्रश्न-चिन्ह सी
खड़ी भीड़ को
अर्थ भरी आवाज लगाकर
दिशा दिखाओ तो जानूँ!
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
[‘एक उजली नजर की सुई’ से]


4.
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां

झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले

दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
[रोटी नाम सत है]


संपर्क:
पताः छबीली घाटी, बीकानेर फोनः 09413312930

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

मेरे पिता : हरीश भादानी



सरला माहेश्वरी



अपने पिता, हरीश भादानी के बारे में सोचती हूँ तो बड़ी असमंजस में पड़ जाती हूँ। पिता की तस्वीर में आमतौर पर बच्चे अपने बचपन की स्मृतियों के ही रंग भरते हैं। लेकिन मैं जब अपने बचपन के दिनों की याद करती हूँ और उसमें अपने पिता को ढूंढती हूँ, तो मन के कैनवस पर कुछ धुंधली रेखाओं के अलावा कुछ नहीं उभरता। बस एक अहसास, एक अनुभूति दिल-दिमाग पर तारी हो जाती है। घर से आमतौर पर अनुपस्थित रहने वाले अपने पिता को घर के बजाय बाहर के विराट से ही ज्यादा जाना। कभी-कभार जब पिता के साथ बाहर, शहर में निकलने का मौका मिलता तो बस यही देखते कि उनसे मिलने वाले लोग कदम-कदम पर उन्हें रोक कर दुआ-सलाम करते, घर से बाजार तक की 10-15 मिनट की दूरी हम कभी आध घंटे तो कभी 45 मिनट में तय करते हुए बाजार तक पहुँचते जहां से हमें तांगा लेना होता था। हम बहनें उनके पीछे चलती हुई यह सब देखती रहती। तांगे वाले भी उन्हें देखते ही मनुहार करते और वे बिना कुछ पूछे तांगे पर सवार होकर उनसे खैरियत पूछते हुए बतियाते रहते। मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी किसी तांगे वाले से उन्होंने दाम ठहराये हों, हमेशा कुछ ज्यादा ही दाम देकर उतर पड़ते। उनके साथ कभी-कभार बाहर निकलने और घर में उनके बंधु-बांधवों के अनवरत आगमन ने हमें इतना जरूर समझा दिया था कि हमारे पिता एक आम-फहम इंसान नहीं हैं, वे एक बड़े आदमी हैं जिनकी लोग इतनी इज्जत करते हैं। इस पिता के मेरे अपनों का दायरा इतना बड़ा था कि उसमें उनके अपने जाये हम-हरफों का अलग से कोई स्थान या अर्थ ही नहीं था। घर में जमने वाली महफिलों में आये अपने रचनाकार मित्रों से जब हम बहनों का परिचय कराने की नौबत आती तो पिता अक्सर गड़बड़ा जाते, न तो उन्हें हमारी स्कूलों का नाम याद रहता और न ही यह याद रहता कि हम कौन सी कक्षाओं में पढ़ रहे हैं। लेकिन पता नहीं उनका यह न जानना हमें कभी बुरा भी नहीं लगा। शायद यह उसी गर्व-बोध का अहसास था कि हमारे पिता एक दूसरे तरह के इंसान हैं। बचपन में ही उन्हें कवि-सम्मेलनों में मजमा जमाये हुए देखा करते थे और लोग उनके गीतों पर वाह-वाह करते रहते थे। इसलिए पिता की छवि हमारे सामने एक खास इंसान की थी, क्या हुआ जो उसे अपनी संतानों को देने के लिये वक्त नहीं हुआ करता था। और, हमारा हवेलीनुमा घर भी क्या घर था। उसे घर नहीं बल्कि एक सराय ही कहा जा सकता था, जहां अनगिनत लोग अपने-अपने कामों से आते, कोई महीना-दो महीना तो कोई छः महीना-साल भर भी रह जाते और फिर चल देते। बाहर से आकर रहने वाले ये मेहमान पिताजी के इतने करीबी दिखाई देते कि हमें लगता था कि इस घर पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा, बल्कि हमसे कहीं ज्यादा।
आज सोचती हूँ तो लगता है शायद पापाजी की इस घड़त, वसुधैव कुटुंबकम वाली मानसिकता का राज उनके अपने बचपन की कटु जिंदगी में छिपा हुआ था। एक ऐसा बच्चा जिसके जन्म के फौरन बाद ही बाप संन्यासी हो गया था और मां-पति के वियोग में कुछ ही महीनों में चल बसी हों, ऐसे बकौल पोषक दादाजी, अपसगुनिये बच्चे का बचपन कैसा हो सकता था, इसका बयान खुद उन्होंने इन शब्दों में किया हैः

"सुनो, हीये पर रख कर हाथ/हवेलीदार प्रजापतियों ने/लग गयी छूत की तरह उठाकर/पहनाई मुझे एक कंठी/जड़ी थी जिसमें एक छोटी सी थेगड़ी/गुदा हुआ था उस पर-ऋंग-क्लिंग की लिपि में/ "अपसगुनिया"/ किटकिटते रहते थे उनके दांत/आया है दो को निकालकर/ 'कुबुद्धि' तो निकलेगा ही/ ऐसे ही पालनों में झूल-झूलता/गीले से सूखा/सूखकर गीला होता हुआ/हो ही गया मैं/पांच फुटा कीकर।"

सामंती संस्कारों के गारे-इंट से बनी हवेली में अनचाहे उग आये इस पांच फुटे कीकर ने शायद बहुत पहले ही इसकी सारी अंतरकथा को जान लिया था और यह निश्चय कर लिया था कि वह इस बंद हवेली की हर ईंट को उखाड़ देगा। इसी कविता में वे एक जगह कहते हैः


"हम वह फावड़ा, कढ़ाई, पांव/ जो अतलांत तक जाकर/ समाधि दें/झंखाड़ मलबे को,/संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण/कुछ भी हैं/तो हम केवल कुम्हार/ तब तक फिराएं चाक/ बन जाए यह धरती ही/ रोशनी से पुता/ वातायनी घर,/ हमारी अंगुलियों की छुअन से होता रहे/ अहल्या का रचाव सीता में,/ हमारा मन हिलकता पारदर्शी जल/ दिखे-देखें एक सा हीं।"


बचपन की अपनी उस हवेली की झूठी, सामंती मर्यादाओं को गेंती और फावड़े से झाड़-बुहार कर हवेली से बाहर एक नया 'वातायनी' घर बनाया था पिता ने। इस वातायनी घर के पिता ने अपनी संतानों के लिये कोई निश्चित अनुसरणीय रास्ता तैयार नहीं किया था। दिखे-देखें एक सा ही-मन वाले पिता के लिए हम-आजिये अपना आज लिखने को मुक्त थे।
'वातायनी घर' से 'वातायन' की याद आ गयी। लगातार 14 वर्षों तक उनके संपादन में निकलने वाली इस पत्रिका के साथ जुड़े उनके सहयोगी मित्र ही हमारे घर के सदस्य थे। पत्रिका के काम अथवा पता नहीं किन जरूरतों की वजह से लगातार बाहर रहने वाले पिता की अनुपस्थिति में उनके ये मित्र ही हमारे अभिभावक बन गये थे। कई नाम याद आते हैं, लेकिन एक नाम जिसका साथ दूर तक रहा, वे सरल काकाजी आज भी भूलते नहीं। माँ-बाप के प्यार से महरूम तथा जिंदगी के उबड़-खाबड़ रास्तों पर अकेले ही अपना रास्ता बनाने को छोड़ दिये जाने वाले मेरे पिता को इसलिये शायद अपने अनुभवों के चलते ही यह जरूरी नहीं लगा कि अपनी संतानों के लिये कोई निश्चिंत रास्ता बनाने का कष्ट उठाए। बड़े से हवेलीनुमा घर में दादा और पड़दादा के बड़े से नाम के साथ रहने वाले उनके वंशजों के पास नाम और इज्जत तो बहुत थी, लेकिन उस नाम और इज्जत को बचाये रखने में हम बच्चों की हालत खस्ता हो जाती। पिता को अपने दादा से जो भी संपत्ति मिली थी, उसे बड़ी बेरहमी से लुटाकर फक्कड़ होने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा। दादाजी के समय के तांगे-इक्के, हवेलियां, दुकानें सब बिकती गयी। और रह गयी सिर्फ यह हवेली। हम बहनों का नाम भी बड़ी स्कूल से कटवा कर मोहल्ले की एक छोटी सी पाठशाला में लिखवा दिया गया था। घर से प्रायः अनुपस्थित रहने वाले पिता का फर्ज कुछ हद तक मां ने ही निभाया। मुझे याद पड़ते हैं वे दिन जब स्कूल में फीस देने का वक्त होता तो इतना डर लगता कि क्या होगा। मां को दो-तीन दिन पहले बोलना पड़ता था और अक्सर मां कभी अपना कोई गहना बेचकर या गिरवी रख कर हमारी फीस अदा करती। मोदी की दुकान का बढ़ता जाता बिल हम बहनों को फिर उसकी दुकान तक जाने से डराता रहता। इसी तरह से चलते संसार में एक दिन पिताजी का अवतरण होता, थोड़े दिनों के लिए फिर कुछ पटरी लाईन पर आती, "दाना आया घर के अंदर बहुत दिनों के बाद" की नागार्जुन की पंक्ति को चरितार्थ करते हुए थोड़े दिन चैन के बीतते और फिर शायद शुरू हो जाता अभाव का एक और वृत्त। इस अभाव के संसार की मांगों से उत्पन्न खीज और बेचैनी ने ही शायद पिता से लिखायी होगी "बिना नाप के सीये तकाजे सारा घर पहनाए" की तरह की पंक्ति।
बहरहाल, मजे की बात यह है कि ऊपरी तौर पर हमने अपने पिता को जैसा देखा उसमें चाहे पैसा हो या न हो, दूसरों के लिये उनकी दरियादिली में कभी कोई कमी नहीं दिखाई दी। वो वाकया मुझे कभी नहीं भूलता जब पिता की जेब में आखिरी 50 रुपये थे और एक रिश्तेदार घर में आ टपके, पता नहीं उनकी जरूरत शायद हमसे बड़ी रही हो, पिताजी ने मां की इस बात को नजरअंदाज करके कि घर में तेल नहीं है खाना कैसे बनेगा, रुपये उस आदमी के हवाले कर दिये। पिताजी की इस आदत से पूरे परिवार को कई बार काफी तकलीफें उठानी पड़ती थी। कुछ लोग थे जो इस बात से बेखबर होकर कि हवेली पूरी तरह खोखली हो चुकी है, अपनी जरूरतों के चलते प्रायः उनसे पैसा मांगने आते थे।
हांलाकि यह सच है कि पिताजी का घर सिर्फ बीकानेर की हवेली में ही नहीं था। इस बीच विभिन्न शहरों के परिवारों में उनके अस्थाने बन गये थे, जहां वे महीनों टिके रहते, और वहां उनके लिए प्यार, सम्मान सब था। मुम्बई और कोलकाता के घर ने उनका परिचय आधुनिक महानगरीय जीवन से कराया, जीवन के लिए संघर्ष के कई नये रूपों से उनका साक्षात्कार हुआ, ‘सीटियों से सांस भरकर भागते बाजार मिलों, दतरों को रात के मुर्दे, मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘क्षण क्षण की छैनी से काटो तो जानूं’ जैसी कई सशक्त रचनांए यहीं लिखी गयी। आज जब गौर करती हूँ तो मुंबई-कोलकाता प्रवास के उस काल को पिता की रचनाशीलता का सबसे स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। कोलकाता के परिवार ने तो उन्हें सिर्फ प्यार और सम्मान ही नहीं दिया बल्कि जीने का एक नया दर्शन भी दिया। रमन माहेश्वरी के रूप में उन्हें ऐसे दोस्त मिल गये थे कि कल का रूमानी प्रेम और भावनाओं में डूबा रहने वाला कवि मार्क्सवादी दर्शन से लैस होकर एक सशक्त जन-कवि के रूप में सामने आया और हिंदी के जन-गीतों को एक नई ऊंचाई और सौन्दर्य प्रदान किया। कोलकाता के इस परिवार में मुझे अपने एक नये पिता का रूप नजर आया। पहली बार जब घूमने के लिये ही कोलकाता इस परिवार में आयी तो यह देखकर दंग रह गयी कि मेरे पिता के सभी पुराने-नये गीत इस परिवार के लोग सामूहिक रूप में गाते थे। अपने पिता का यह रूप अपने घर में मैं सिर्फ कवि गोष्ठियों में ही देखती थी। घर लौटकर सारे गीत मैंने याद कर डाले यह सोचकर कि मुझे तो अपने पिता के गीत-कविताएं याद होने ही चाहिये। कोलकाता के इस परिवार ने सिर्फ पिता को नहीं, हमारे पूरे परिवार को ही जैसे एक नया जीवन दे दिया था। शायद इस भरे-पूरे परिवार ने ही उन्हें एक पति, एक पिता का भी बोध दिया। बाद में, मेरी शादी के साथ इस परिवार से हमारा हमेशा का एक अटूट रिश्ता कायम होगया।
मार्क्सवाद और पार्टी से पापाजी के संपर्क के साथ ही हमारे घर में राजनीतिक हलचलों का एक नया रूप सामने आया। '72-73' का जमाना था। बीकानेर में विश्वविद्यालय की स्थापना का आंदोलन एसएफआई के नेतृत्व में शुरू हुआ था। हम भी कालेज में दाखिल हो चुके थे। इस आंदोलन ने ज्यों-ज्यों तूल पकड़ना शुरू किया, सरकारी दमन भी उसी अनुपात में बढ़ने लगा और उसके साथ ही हमारा घर भारी उत्तेजना का केंद्र बन गया। पिताजी ने ही हमें इस आंदोलन में शामिल होने, एसएफआई से जुड़ने के लिये प्रेरित किया और उसी समय मोहता चैक पर छात्राओं की एक सभा को संबोधित करने का रोमांचक अनुभव मैं कभी भुला नहीं सकती। किसी भी आम सभा के मंच से राजनीतिक भाषण देने का वह मेरा पहला अनुभव था।

हम दो बहनों की शादी ने पिता को अंतिम हवेली भी बेच देने का मौका दे दिया, और इस प्रकार हमारे परिवार की शान-शौकत का यह आखिरी नकाब भी उतर गया। हवेली के बगल में ही एक छोटे से मकान में हमने डेरा डाला। हवेली से एक छोटे से घर तक के इस सफर में थोड़े से काल के लिये किराये के मकान में भी रहना पड़ा। पिता के सुख-दुख की साथी वह 'वातायन' पत्रिका पहले ही बंद हो गयी थी जिसके मंच से उन्होंने इस छोटे से शहर को साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बना दिया था। इसी के चलते बाहर से छोटे-बड़े साहित्यकारों का आगमन होता ही रहता था। अज्ञेय को बचपन में पहली बार बीकानेर में अपने घर में ही देखा था। उनकी वह शांत, सुंदर गरिमामय छवि आज भी आंखों में बसी हुई है। देखते ही देखते उनके सभी दोस्त इधर-उधर बिखर गये। किसी तरह एक छोटे से प्रेस के सहारे सरल काकाजी और हमारा घर चलता रहा। ‘संकल्पों के नेजों को और तराशो, और तराशो का ओज अब चुकने लगा था, और ‘75 के बाद का सन्नाटा, आज सोचती हूँ तो शायद पिता के जीवन का वह सबसे एकाकी और कष्टभरा काल था। काट गये काफिले रास्ता, यह ठहराव न जी पाएंगे, टूटी गजल न गा पाएंगे, सन्नाटा ना स्वरा पाएंगे और इस तरह की रचना यात्रा का एक और दौर शुरू होता है। कुछ जीवन की अपनी मजबूरियों ने और कुछ जीवन के हर रूप को देखने-समझने की चाहत ने इसी बीच उनका रिश्ता राजस्थान के गांवों से जोड़ दिया जहां वे साक्षरता अभियान में अपनी रचनात्मक शक्ति के साथ जुड़ गये। गांवों की इस रेतीली धरती ने एक बार फिर उन्हें नया जीवन दिया, इस रेत में उनका मन ऐसा नहाया कि अब इन्हीं सूने धोरों पर आसन बिछा कर रम गये। रेत में नहाया है मन जैसी मरुभूमि के सौंदर्य और उसके जीवन संघर्ष के सतरंगी रूप को उभारने वाली अद्भूत रचनाएं हमारे सामने आती हैं। मुझे याद आते हैं जनवादी लेखक संघ के वे सम्मेलन जब पिताजी से बार-बार ये मांग की जाती थी कि वे इन रचनाओं को सुनाएं। इसी दौर में राजस्थानी भाषा में लिखे गये उनके 'हूणिये' भी राजस्थान में लोगों की जुबान पर चढ़ गये थे। मिट्टी से इस जुड़ाव के साथ ही उनका रचनाकार वेदों और उपनिषदों की तरह भी जाता है। कुछ मोती वहां से भी तलाशने की कोशिश करता है। "मौसम ने रचते रहने की ऐसी हमें पढ़ाई पाटी" के संकल्प के साथ पिताजी लिखते रहें और लिखते रहें तथा साहित्य संसार को उनकी यह सौगात ही उनकी संतानें अपने पिता की धरोहर समझ कर संभाल कर रखेंगी।

मंगलवार, 29 जुलाई 2008

श्री भादानी जी का संक्षिप्त परिचय

- शम्भु चौधरी




हरीश भादानी जिनका अभी-अभी अपनी उम्र के 75 साल पूरे करने पर बीकानेर में एक तीन द्विवसीय भव्य समारोह किया गया है। हरीश भादानी के बीकानेर में होने वाले अभिनन्दन समारोह में उनकी लोकप्रियता का जो दर्शन हुआ। वह वास्तव में कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। हरीश भादानी वैसे तो राजस्थान और देश के जाने माने जनकवि हैं ही, लेकिन स्थानीय स्तर पर उनकी जो लोकप्रियता है उसको देखकर तो चुनावी राजनेता भी कभी-कभी भयभीत हो जाते हैं। इनके व्यक्तित्व ने बीकानेर नगर के होली के हुड़दंग में एक नई दिशा देने का प्रयास किया। खेड़ा की अश्लील गीतों के स्थान पर भादानीजी ने नगाड़े पर ग्रामीण वेशभूषा में सजकर समाज को बदलने वाले गीत गाने की परम्परा कायम की, उससे बीकानेर के समाज में बहुत अच्छा प्रभाव परिलक्षित हुआ था। उनका सरल और निश्चल व्यक्तित्व बीकानेर वासियों को बहुत पसन्द आता है। भादानीजी में अहंकार बिल्कुल नहीं है। इनके व्यक्तित्व में कोई छल छद्म या चतुराई नहीं है।
हरीश भादानी ने अपने परिवारिक जीवन में भी इसी प्रकार की जीवन दृष्टि रखी है और ऐसा लगता है कि उनको यह संस्कार अपने पिता श्री बेवा महाराज से प्राप्त हुए हैं। उनके गले का सुरीलापन भी उनके पिता की ही देन समझी जानी चाहिए। लेकिन उनके पिताश्री के सन्यास लेने से भादानीजी अपने बचपन से ही काफी असन्तुष्ट लगते हैं और इस आक्रोश और असंतोष के फलस्वरूप उनका कोमल हृदय गीतकार कवि बना।
भादानीजी ने अपनी रचना यात्रा में त्रैमासिक वातायन के प्रकाशन को एक मुख्य पड़ाव समझा है और यह सही भी है। राजस्थान में अजमेर से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका लहर और मधुमति के अलावा कोई साहित्यिक पत्रिका उस समय नहीं थी। हरीश भादानी ने वातायन का प्रकाशन करके हिन्दी साहित्य जगत में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष साहित्यिक पत्रिका को जन्म दिया था। बुद्धिजीवी साहित्यकार वातायन में छपने के लिए लालायित रहते थे। भादानी ने अपने आर्थिक स्रोतों का षोषण करके वातायन को जिंदा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। डॉ. पूनम दईया और सरल विशारद ने भी वातायन को अपनी आजीविका का साधन नहीं मानते हुए निष्ठापूर्वक भादाणी का साथ दिया था। स्थानीय दैय्या गली से प्रकाशित होने वाले वातायन की लोकप्रियता को देखकर कुछ स्थानीय और कुछ बाहर के साहित्यकारों को एक प्रकार की ईष्र्या भी होती थी। कुछ भी हो वातायन ने हिन्दी साहित्य जगत में एक मुकाम हासिल कर लिया था। भादानी की वातायन के प्रति जो प्रतिबद्धता थी उसके चलते उन्होंने धीरे-धीरे अपनी हवेली तक बेच दी। और इस प्रकार हरीश भादानी मुफलिसी की हालत में पहुंचने लगे। इसका असर उनके परिवार पर भी पड़ना स्वाभाविक था।
पुत्रियाँ बड़ी हो गई थी उनकी शादी की भी फिक्र सताने लगी। जो लोग हरीश भादानी की जीवन षैली और प्रगतिशीलता को जानते समझते हैं उनका यह मानना है कि हरीश भादानी ने अपनी दोनों बड़ी बच्चियों का अर्न्तजातीय विवाह करने का मन बनाया। और इसको क्रियान्वित भी किया। भादानी ने अपनी बच्चियों को जो संस्कार दिए थे उसके चलते उन दोनों बच्चियों ने अपनी ससुराल में बहुत अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की। और आज वे सुखी जीवन जी रही हैं। सरला माहेश्वरी के पति अरूण माहेश्वरी ने सरला को वैचारिक स्तर पर तराशा और उसको संसद तक पहुंचाने में सहायता की। इसी प्रकार माली समाज के वाम विचारों के जुगल गहलोत ने पुष्पा गहलोत को जनवादी आंदोलन के लिए तैयार किया और आज बीकानेर में पुष्पा जनवादी महिला मोर्चा की प्रमुख कार्यकत्र्ता के रूप में कार्यरत हैं। हरीश भादानी जैसा सरल सहज स्वभाव का व्यक्ति इतना लोकप्रिय और इतना प्रभावशील बुद्धिजीवी साहित्यकार होते हुए आम जनता के बीच इस प्रकार मिले जुले रहते हैं कि किसी को यह अहसास ही नहीं होता हैं कि वह इतने बड़े साहित्यकार के साथ बात कर रहे हैं।
हरीश भादानी केवल जनकवि ही नहीं हैं बल्कि एक श्रेष्ठ चिंतक भी हैं । जिन्होंने अपने सिद्धांतों के अनुकूल जीवन जीया है । आपकी रचना यात्रा जिस तरह और जिन परिस्थितियों में प्रारंभ हुई, उसको जानने वाले यह कहते हैं कि एक समय था जब हरीश भादानी चांदी के चम्मच से खाना खाते थे। बीकानेर में अकूत अचल सम्पत्ति के धनी थे। इनके पिताश्री बेवा महाराज के सन्यास लेने के बाद भादानीजी अपने दादा के सान्निध्य में रहे। छबीली घाटी में उनका भी विशाल भवन था। वह सदैव भक्ति संगीत और हिंदी साहित्य के विद्वानों से अटा रहता था। हरीश भादानी प्रारंभ में रोमांटिक कवि हुआ करते थे। और उनकी कविताओं का प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर एकसा पड़ता था। भादानी के प्रारंभिक जीवन में राजनीति का भी दखल रहा है। लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया हरीश भादानीजी एक मूर्धन्य चिंतक और प्रसिद्ध कवि के रूप में प्रकट होते गए। हरीश भादानीजी को अभी तक एक उजली नजर की सुई 1967-68 एवं सन्नाटे के शिलाखण्ड पर 1983-84 पर सुधीन्द्र काव्य पुरस्कार राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, द्वारा सुधीन्द्र पुरस्कार एक अकेला सूरज खेले पर मीरा पुरस्कार, पितृकल्प पर बिहारी सम्मान महाराष्ट्र, मुम्बई से ही प्रियदर्शन अकादमी से पुरस्कृत, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर से विशिष्ठ साहित्यकार के रूप में सम्मानित किए जा चुके हैं।
जनकवि हरीश भादानी के 75वें वर्ष पूरे करने पर तीन दिवसीय दृष्टि पर्व समारोह का आयोजन बीकानेर में हुआ। 9 और 10 जून को हरीश भादानी के रचनाकर्म पर विस्तृत चर्चा हुई। इस समारोह में मध्यप्रदेश के शिव कुमार मिश्र जैसलमेर के आईदान भाटी, जोधपुर के मरूधर मृदुल डॉ. जगदीश चतुर्वेदी, विमल वर्मा, अरूण माहेश्वरी आदि ने सक्रिय भागीदारी निभाई। स्थानीय लेखकों में मालचंद तिवाड़ी, नन्दकिशोर आचार्य, पुरुषोत्तम आसोपा, सरल विशारद, श्री लाल जोशी आदि अनेक बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों ने भी आलोचनात्मक भागीदारी की।
11 जून को हरीश भादानी का अभिनन्दन समारोह आयोजित हुआ। इससे पहले नारायण रंगा पुत्र प्रसिद्ध गीतकार मोतीलाल रंगा पुत्र प्रसिद्ध गीतकार मोतीलाल रंगा ने भादानी के गीतों की संगीतमय प्रस्तुति पेश की। अभिनन्दन समारोह की अध्यक्षता पं.विभूषण से अलंकृत प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सुधारों की बड़ी गुवाड़ निवासी डॉ विजय शंकर व्यास ने की। प्रवासी आलोचक शिवकुमार मिश्र समारोह के मुख्य अतिथि थे। इस सत्र का संचालन सरल विशारद ने अनूठे और अनोखे ढंग से किया। सरल जी ने हरीश भादानी के जीवन के विरोधाभासों को बताते हुए भादाणी जी की पत्नी श्रीमती जमुना, साहित्यकार नंदकिशोर आचार्य की पत्नी चन्द्रकला को मंच पर आमंत्रित किया और उनके सामने सरल जी ने भादानी जी के जीवनशैली के बारे में विस्तार से बातें बताई। सरल जी के अनुसार भादानी जी अपने जीवन में जोड़ने के क्रम के माहिर रहे हैं । इस अवसर पर उनकी पुत्री और पूर्व सांसद श्रीमती सरला माहेश्वरी ने अपने बचपन से लेकर विवाह तक का मार्मिक विवरण प्रस्तुत किया और बताया कि उन्होंने किस प्रकार अभाव की जिंदगी जी है। उनके पिता भादानी जी को यह पता ही नहीं रहता था कि वह कौनसी कक्षा और किस स्कूल या कॉलेज में शिक्षा ग्रहण कर रही है। लेकिन वे इतना जरूर जानती थी कि उनके पिता षहर के एक प्रतिष्ठित कवि हैं । शहर में उनका काफी आदर सम्मान होता है। सरला माहेश्वरी ने संतोष व्यक्त करते हुए कहा कि उनके पिताश्री ने आर्थिक रूप से बहुत कुछ खोया परन्तु प्रतिष्ठा की दृष्टि से उन्होंने बहुत कुछ पाया और समाज को एक प्रगतिशील दिशा देने में सफलता प्राप्त की।
श्री हरीश भादानी देश के बड़े कवि हैं। श्री हरीश जी अपनी कविता ‘‘ये राज बोलता स्वराज बोलता....’’ एवं ‘‘रोटी नाम संत हैं....’’ दिल्ली के इंडिया गेट के आगे प्रस्तुत की थी। उनकी इस स्तर की कविताएं हैं। लोग इनकी कविताओं को गाते हैं, गुनगुनाते हैं। डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी जो कि बंगाल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। उन्होंने अपने भाषण में श्री हरीश जी की कविताओं में स्थानीयता के पुट को नकारते हुए कहा कि ये उनको राष्ट्रीय स्तर पर जाने से रोकता है, परंतु श्री भादानीजी की हिन्दी और राजस्थानी की कविताओं की राष्ट्रीय पहचान पहले से प्राप्त हो चुकी है।
11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में आपका जन्म हुआ। आपकी प्रथमिक शिक्षा हिन्दी-महाजनी-संस्कृत घर में ही हुई। आपका जीवन संघर्षमय रहा । सड़क से जेल तक कि कई यात्राओं में आपको काफी उतार-चढ़ाव नजदीक से देखने को अवसर मिला । रायवादियों-समाजवादियों के बीच आपने सारा जीवन गुजार दिया। आपने कोलकाता में भी काफी समय गुजारा। आपकी पुत्री श्रीमती सरला माहेश्वरी ‘माकपा’ की तरफ से दो बार राज्यसभा की सांसद भी रह चुकी है। आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादक भी रहे । कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका ‘कलम’ (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। आपकी प्रोढ़शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा पर 20-25 पुस्तिकायें राजस्थानी में। राजस्थानी भाषा को आठवीं सूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता। ‘सयुजा सखाया’ प्रकाशित। आपको राजस्थान साहित्य अकादमी से ‘मीरा’ प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी(महाराष्ट्र), पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से ‘राहुल’, । ‘एक उजली नजर की सुई(उदयपुर), ‘एक अकेला सूरज खेले’(उदयपुर), ‘विशिष्ठ साहित्यकार’(उदयपुर), ‘पितृकल्प’ के.के.बिड़ला फाउंडेशन से ‘बिहारी’ सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है ।

हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकें:

अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959 बीकानेर।
सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता।
हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963।
एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर)
सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966
नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981
सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर1982।
एक अकेला सूरज खेले (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1983 (दूसरा संस्करण-कलासनप्रकाशन, बीकानेर 2005)
रोटी नाम सत है (जनगीत) कलम प्रकाशन, कलकत्ता 1982।
सड़कवासी राम (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1985।
आज की आंख का सिलसिला (कविताएं) कविता प्रकाशन,1985।
विस्मय के अंशी है (ईशोपनिषद व संस्कृत कविताओं का गीत रूपान्तर) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1988ं
साथ चलें हम (काव्यनाटक) गाड़ोदिया प्रकाशन, बीकानेर 1992।
पितृकल्प (लम्बी कविता) वैभव प्रकाशन, दिल्ली 1991 (दूसरा संस्करण-कलासन प्रकाशन, बीकानेर 2005)
सयुजा सखाया (ईशोपनिषद, असवामीय सूत्र, अथर्वद, वनदेवी खंड की कविताओं का गीत रूपान्तर मदनलाल साह एजूकेशन सोसायटी, कलकत्ता 1998।
मैं मेरा अष्टावक्र (लम्बी कविता) कलासान प्रकाशन बीकानेर 1999
क्यों करें प्रार्थना (कविताएं) कवि प्रकाशन, बीकानेर 2006
आड़ी तानें-सीधी तानें (चयनित गीत) कवि प्रकाशन बीकानेर 2006
अखिर जिज्ञासा (गद्य) भारत ग्रन्थ निकेतन, बीकानेर 2007

राजस्थानी में प्रकाशित पुस्तकें

बाथां में भूगोळ (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1984
खण-खण उकळलया हूणिया (होरठा) जोधपुर ज.ले.स।
खोल किवाड़ा हूणिया, सिरजण हारा हूणिया (होरठा) राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति जयपुर।
तीड़ोराव (नाटक) राजस्थानी भाषा-साहित्य संस्कृति अकादमी, बीकानेर पहला संस्करण 1990 दूसरा 1998।
जिण हाथां आ रेत रचीजै (कविताएं) अंशु प्रकाशन, बीकानेर।

साभारः बीकानेर एक्सप्रेस, बीकानेर।
पताः छबीली घाटी, बीकानेर फोनः 09413312930


इनकी चार कविताऎं:-

1.
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
2.
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
पसर गया है / घेर शहर को
भरमों का संगमूसा / तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
जड़े सुराखो तो जानूँ! / फेंक गया है
बरफ छतों से
कोई मूरख मौसम
पहले अपने ही आंगन से
आग उठाओ तो जानूँ!
चैराहों पर
प्रश्न-चिन्ह सी
खड़ी भीड़ को
अर्थ भरी आवाज लगाकर
दिशा दिखाओ तो जानूँ!
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
[‘एक उजली नजर की सुई’ से]

3.
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां

झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले

दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
[रोटी नाम सत है]


4.
बोलैनीं हेमाणी.....
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थें
विंयां घड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो?
[‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]

सोमवार, 28 जुलाई 2008

आज की आंख का सिलसिला

और ईसा नहीं
और ईसा नहीं
आदमी बन जिएं

सवालों की
फिर हम उठाएं सलीबें
बहते लहू का धर्म भूल कर

ठोकने दें शरीरों में कीलें
कल हुई मौत को
दुहरा दिए जाने से पहले
तेवर बदलते हुए आज को देख लें
बहुरूपियों की नक़ाबें उलटने
हक़िक़त को फुटपाथ पर
खोलने की सजा है ज़हर हम पिएं

सुकरात को
साक्षी बना देने से पहले
तेवर बदलते हुए आज को देख लें
साधु नहीं आदमी बन जिएं
रची फिर न जाएं अधूरी ऋचाएं
बांचे न जाएं गलत फ़लसफ़े

जिन्दगी का नया तर्जुमा
कर लिए जाने से पहले
इतिहास का
आज की आंख से
सिलसिला जोड़ दें ।

गलियों-घाटियों
गलियों-घाटियों
भटके दुखों का एक लम्बा काफ़िला
लेकर चले हैं

सामने वाली दिशा की और
ठहरने का नहीं है मन कहीं भी
धीरज भी नहीं है
मुड़ कर देख लें

न कोई गुबार
करना ही नहीं है
डूबती आहट का पीछा
चौराहा थामे खड़े ओ अकेले
देख तो सही
आंखें जा टिकी
नीलाभ पतों पर
हवा में घुल गई है स्संस
सूघे छोर सारे
हाथ लम्बे हो
पोंछने लग गये हैं कुहासा
झरोखों के बाहर
दूर-दूर पसरे नगर तक


भीड़ के समुन्दर में
भीड़ के समुन्दर में
बचाव के उपकरण पहने
न रहूं
गोताखोर सी एकल इकाई
उतरता चला जाऊं
अत्लान्त में समाने
टकरा जाऊं तो लगे
भीतर दर्प की चट्टान दरकी है
अतेने बड़े आकार में
अतनी ही हो पहचान मेरी ।

मांस की हथेलियों से
मांस की हथेलियों से पीटे ही क्यों
जड़ाऊ कीलों के किवाड़
खुभें ही
रिस आया लहू झुरझुराया मैं
कितनी दुखाती है जगाती हुई यह नींद
पोंछा है खीज कर
फटी कमीज से इतिहास
अक्षरों की छैनियों से तोड़ने
लगा हूं
मेरे और मेरी तलाश के बीच
पसरा हुआ जो एक ठंडा शून्य

[आज की आंख का सिलसिला से]

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

हरीश भादानी: विद्रोही रचनाशीलता के सतरंगी आयामों एक बड़ा कवि

- अरुण माहेश्वरी


हरीश जी, उनके संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व से अपने लंबे और गहरे परिचय के चलते उनके बारे में कुछ भी लिखना जितना आसान और एक हद तक उबाऊ जान पड़ता है, उतना ही कोरे पिष्टपेषण के बजाय लीक से हट कर नया कुछ खोजने-कहने का आग्रह इस सारे मामले को थोड़ा चुनौतीपूर्ण भी बना देता है। ‘60-’70 के दशक के रूमानी, ‘पवित्र पापी’ की ओज के साथ अपने एक खास प्रभा-मंडल वाले प्रेम और विद्रोह के आपाद-मस्तक कवि हरीश भादानी को कौन नहीं जानता। कवि सम्मेलनों में उनके ठाठ को देख कर किसी ने उन्हें राजस्थान का नीरज और बच्चन कहा था, तो उनसे दो कदम आगे बढ़ कर बारीक मिजाज आधुनिक कवि ने कविता की ष्रेष्ठता का परचम लहराते हुए कविता की इस अनोखी गायकी के लिये उनकी वाह-वाही की थी।
लेकिन यह सब बातें पुरानी हो चुकी हैं। लगभग चार दशक पुरानी। ये बातें एक हद तक आख्यानों और शायद स्मृतियों का रूप ले चुकी है। जन-आंदोलनों की अग्रिम पांत में खड़े एक जन कवि के रूप में भी हरीश जी की पहचान बने तीन दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है। ‘वातायन’ के संपादक हरीश जी की यादें भी ‘60 से लेकर प्रायः ’80 के जमाने तक चले जोशीले लघु पत्रिका आंदोलन की यादों की तरह धुंधला गयी हैं। उलट कर कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि न वह युग रहा, न वैसे ठेले-नुक्कड़ और इसीलिये न रही ‘ऐ मुहब्बत जिंदाबाद’ वाली ‘जांबाजी’ की मदहोश कर देने वाली किस्सागोई की अहमियत। ‘अधूरे गीत’(1959),‘सपन की गली’(1961) के गीत और ‘हंसिनी याद की’(1962) की रूबाइयां, जिनकी जुबान पर तब थे, आज भी हैं और आगे भी सदा उनके फुरसत के क्शणों के खालीपन को अनोखी मानवीय अनुभूतियों से आबाद रखेंगे। ये मानव स्वभाव की मूलभूत वृत्तियों, साहित्य के स्थायी सत्यों की तरह लंबे-लंबे काल तक लोगों को रिझायेंगे, रुलायेंगे और अपने में डुबायेंगे भी। और कहना न होगा कि हरीश जी के इस स्थायी सत्य को कभी कोई नकार नहीं पायेगा। किसी उद्यमी के हाथों पड़ कर आधुनिक तकनीक से समृद्ध संगीत के साथ इनका फिर-फिर जन्म और संस्करण हो, तो अचरज की बात नहीं है। कहा जा सकता है कि हरीश जी के साहित्य-शैशव की ये रचनाएं शैशव की मासूमियत और ताजगी के साथ ही कवि हरीश भादानी के व्यक्ति-सत्व का एक निष्चित परिचय देती हैं, जो नैरंतर्य के बिल्कुल पतले धागे की तरह ही क्यों न हों, उनके परवर्ती दिनों की रचनाओं के आवेग और विस्तार के मर्म को समझने में किसी के लिये भी सहायक बन सकती हैं। प्रेम की विस्मृतियों और सुधियों के एक विस्तृत फलक में कहीं लोरी सुनाती तो कहीं कदम-ताल मिलाती अनगिन धुनों के उस रचना संसार को सिर्फ रूमानी बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है। एक कठोर सामंती परिवेश में वह किसी मुक्त मन के विद्रोही स्वरों का ऐसा प्रवाह था जिसमें डुबकी लगा कर आज भी बड़ी आसानी से मानवीय और जनतांत्रिक संवेदनाओं के पूण्य को अर्जित किया जा सकता है। जिन्होंने भी हरीश जी के पहले गीत संकलन ‘अधूरे गीत’ के ‘तेरी मेरी जिन्दगी के गीत एक है’, ‘रही अछूती सभी मटकियां’, ‘सभी सुख दूर से गुजरे’, प्रिये अधूरी बात’ तथा दूसरे संकलन ‘सपन की गली’ के ‘सात सुरों में बोल’, सोजा पीड़ा मेरे गीत की’ की तरह के गीतों को सुना है, उनके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते हैं। प्रेम और सौंदर्य के ये गीत अपने बोल और अपनी धुनों से भी किसी भी युवा मन के प्रिय क्शणों के साथी बन सकते हैं।

हरीश जी का यह रचना संभार हमारी तो साहित्यिक रुचियों के जन्म काल और युवा वय के नितांत आत्मीय और बेहद आनंददायी क्शणों की स्मृतियों से जुड़ा हुआ है और सही कहूं तो अपने साहित्य-संस्कार का आधार है। इसीलिये इन रचनाओं के सम्मोहक वृत्तांत में मैं अपने को खोना नहीं चाहता। अगर इनकी ओर कदम बढ़ा दिये तो न जाने कहां का कहां चला जाऊं और इस भटकाव के चलते जिस खास बात की ओर ध्यान आकर्शित करने के लिये मैंने इस टिप्पणी को लिखने का निष्चय किया, शायद उसे ही भूल जाऊं।
न मैं ‘सुलगते पिंड’(1966) और ‘एक उजली नजर की सूईं’(1966) की महानगरीय छौंक लगी संवेदनाओं की कविताओं और गीतों की ही बात करना चाहता हूं, जो तब भी नागर जीवन के अजनबीपन को अपनी छैनी के प्रहारों या फिर आत्मीय आलींगनों से दूर करने और जिंदगी की जिल्द के किसी नये सफे को पढ़ने का सपना पाले हुए थी। यह समय था हरीश जी के मूल विद्रोही तेवर पर कम्युनिस्ट दर्शन के मुलम्मे की चमक का। अब विद्रोही प्रेमी ‘ड्योढ़ी के रोज ब रोज शहर जाने और कारखाने के सायरन की सीटी से बंधी एक नियत जिंदगी जीने के विच्छिन्नताबोध की पीड़ा के साथ ‘क्षण-क्षण की छैनी’ से काट कर चीजों को परखने की तरह कड़े से कड़े प्रष्नों से व्यवस्था को बींधने वाले विद्रोही मजदूर से एकात्म हो जाता है। ‘एक उजली नजर की सुई’ में उनके इस दौर के कई अमर गीत संकलित है, जैसे - ‘मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘क्षण-क्षण की छैनी से काटो तो जानूं’, ‘ऐसे तट हैं क्यों इन्कारें’, संकल्पों के नेजों को और तराशो’, ‘थाली भर धूप लिये’ और ‘सड़क बीच चलने वालों से’। ये सघन और जटिल महानगरीय बोध के साथ नये, बेहतर और मानवीय समाज के निर्माण की बेचैनी के गीत है। इन गीतों में उकेरे गये आधुनिक भावबोध के बिंब गीत और कविता के बीच श्रेष्ठता की बहस को बेमानी कर देने के लिये काफी है।
बहरहाल, मुझे लगता है कि यह वैचारिक प्रतिबद्धता, महानगरीय अवबोध और झकझोर देने वाले प्रश्नों को उठाने की बेचैनी की कहानी सत्तर-बहत्तर तक आते-आते कुछ खत्म सी होती दिखाई देती है। ‘एक उजली नजर की सुई’ का प्रकाशन 1966 में हुआ था। इसके बाद लंबे 13 वर्शों के उपरांत प्रकाशित हुई हरीश जी की लंबी कविता ‘नष्टोमोह’ को सतह से देखने पर कोई भी उसे सत्तर के जमाने के पूरे दृष्यपट के साथ आत्मालाप करने वाली उसी काल की रचना दृष्टि का किंचित विस्तार कह सकता हैं। लेकिन यदि कोई इसकी सतह की गहराई में जाए तो पता चलेगा कि संभवतः उस पूरे काल के साथ किया गया यह आत्मालाप उस काल के विद्रोही आवेग को एक शानदार श्रद्धांजलि का उपक्रम भर था। यह सच है कि ‘66 से ‘79 के बीच के इसी दौर में सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल की परिस्थितियों ने ‘रोटी नाम सत है’ के गीतों के रचयिता, हरीश भादानी के एक नये नुक्कड़कवि के रूप को भी जन्म दिया। सन ‘75 का आंतरिक आपातकाल और उसके पहले और बाद की उत्तेजक और चुनौती भरी राजनीतिक परिस्थितियों का दौर कुछ अलग ही था। इसमें ‘रोटी नाम सत है’ के जुझारू गीतों ने जन कविता के अपने एक अलग ही इतिहास की रचना की थी। हरीश जी ने अपने साहित्यिक-राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दौर में ‘भारत की भूखी जनता को अपना लेटिनेंट चाहिए’ की तरह के जोशीले गीत और रूबाइयां आदि लिखी थी। ‘रोटी नाम सत है’ के गीतों को उसी हरीश भादानी का कहीं ज्यादा चेतनासंपन्न, कल्पनाप्रवर और परिपक्व पुनर्जन्म कहा जा सकता है। ‘रोटी नाम सत है’, ‘राज बोलता सुराज बोलता’ तथा ‘बोल मजूरे हल्ला बोल’ की तरह के उनके गीत आपातकाल के खिलाफ देश भर के जनवादी आंदोलन के अभिन्न अंश थे। कहने का मतलब यह कि यह एक अलग प्रकार की लड़ाइयों का दौर था और शायद तब बाकी सब कुछ स्थगित करके सड़कों पर उतर आना ही कवि और कविता की मजबूरी थी।

लेकिन मैं हरीश जी के रचनाकर्म के इस, और ऐसे सभी दौरों के खात्मे की बात कर रहा था। ‘नष्टोमोह’ के संदर्भ में कह रहा था कि यह शायद ऐसे दौरों के विस्तृत आख्यान के साथ उन्हें बाकायदा अलविदा कहने की तरह का एक उपक्रम था। इसी सिलसिले में मैं पहले ‘वातायन’ पत्रिका की बात करना चाहूंगा, जो एक रूमानी, स्वप्नदर्शी और प्रतिबद्ध कवि हरीश जी के साहित्यिक क्रिया-कलापों की पहचान थी। उनके संपादन में ‘60 के जमाने से लंबे काल तक नियमित मासिक और फिर कुछ दिनों तक अनियतकालीन निकली यह पत्रिका ‘73 तक आते-आते पूरी तरह बंद होगयी। जानकार इस पत्रिका के बंद होने के अनेक कारणों को गिना सकते हैं, लेकिन लगभग डेढ़ दशक तक लगातार निकली इस पत्रिका से हरीश जी के इसप्रकार मूंह मोड़ लेने का कितना संबंध उनके ‘नष्टोमोह’ की व्यापक पृष्ठभूमि से था, यह सचमुच एक गवेषणा का विषय हो सकता है।
बहरहाल, आज, हरीश जी की 75वीं सालगिरह के इस मौके पर मैं जिस बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, वह सन् ‘75 के पहले के कवि की बात नहीं है। मेरा ध्यान उनके प्रारंभिक दो दशकों के रचनाकाल के बाद के इन तीन दशकों के रचनाकाल की ओर है। यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है कि लगभग तीन दशक पहले ही जिस कवि की शख्सियत की एक संपूर्ण प्रतिमा विकसित होकर लोगों के दिलों में रच-बस गयी थी, जिसने समाज को ढेरों अमर रचनाओं की सौगात दी, वह कवि बाद में और तीन दशकों तक अपनी ही उस विशाल प्रतिमा की छाया तले लिखता रहा, लगातार लिखता रहा और गौर करने लायक है कि अपने अतीत से मोहाविष्ट होकर खुद को ही दोहराते हुए नहीं, बल्कि उससे बिल्कुल भिन्न परिदृष्य और संदर्भों के साथ एक नये आवेग और नयी भाषा में किसी और ही नये सत्य के संधान का संकेत देता हुआ लिखता रहा।

‘नष्टोमोह’ का आवेशित कवि जो कहता है कि "उनके हाथ जगन्नाथ/उनके पांव वामन/उनका रोम-रोम समझदार/वे तीनों गुण/वे पांचों तत्व/वे संदीपन द्रोणाचार्य/चाणक्य बिस्मार्क/वे कलाएं और विज्ञान/जनक जननी भी/रिश्ते-अ-रिश्ते भी वे/औचित्य अनौचित्य भी वे/वे इकाई में दहाइयां/और मैं-/एक मान लिया गया कुछ भी नहीं"..."एक पैमाना उठाए/समझाने लगते हैं वे मुझे/एक फार्मूला-दहाई का गुणक/गुणनफल बटा मियादी हुंडी/या चैक/बराबर जीवित शरीर...अगवानी थाली/निहोरे और बिछौना/गदराया शरीर/आदि अनादि भूखों की /भौतिक अधिभौतिक/सभी संक्रामक व्याधियों की रामबाण दवा/मिलती है उसे/ आता हो जिसे /लीलावती रचित भिन्न/लंगड़ी भिन्न हल कर लेना, उसे खनखना देना।" और इनके मोह से मुक्त हो जिसे अपने वास्तविक रूप और कर्त्तव्य का बोध हो गया है, वह संशयमुक्त कवि विद्रोह की तमाम परंपराओं का खुद को अंशी मानते हुए भी अंत में कहता हैं कि "मुझे ही बनना है/आदमी के लिये/आदमी की सभ्यता, उसकी संस्कृति/और जब करने लगूंगा रचाव/आदमीः आरम्भ/मुझ जैसी दुनियाओं के लिये/हम खयाल अजीज!/तुम्हें ही दूंगा आवाज/संयोग लिये/गर्भा लिये जाने मेरे वर्तमान से /समय नहीं/शरीर नहीं/ रोशनी! शब्द! संबोधन!"

मेरी कोशिश इस नयी रोशनी, शब्द और संबोधन के साथ खुद ही आदमी की सभ्यता और संस्कृति बनने का हौसला रखने वाले कवि की लगभग तीन दशकों तक फैली परवर्ती रचनाशीलता की ओर ध्यान आकर्षित करने की है, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, यह कत्तई उनकी पूर्व-रचनाशीलता का दोहराव नहीं है। इसे यदि पूर्व का विपरीत न भी कहा जाए तो पूर्व से भिन्न तो कहना ही होगा, और इसीलिये यह बेहद गंभीर, जरूरी और जिम्मेदारीपूर्ण जांच की मांग करता है। इसके अभाव में कवि हरीश भादानी के कृतित्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा अव्याख्यायित रह जायेगा और उनके व्यक्तित्व का कभी भी समग्र आकलन नहीं हो पायेगा।

नष्टोमोह के दो वर्श बाद ही 1981 में हरीश जी के गीतों का एक नया संकलन प्रकाशित होता है, ‘खुले अलाव पकाई घाटी’। तीन भागों में विभाजित इस संकलन के पहले भाग का शीर्शक है - "अपना ही आकाश...", लेकिन "अपना ही आकाश बुनूं मैं" गीत दूसरे भाग में शामिल है। नष्टोमोह में "मुझे ही बनना है/आदमी के लिये/आदमी की सभ्यता, उसकी संस्कृति" का जो संकल्प जाहिर किया गया है, ‘अपना ही आकाश बुनूं’ उसीका आगे फैलाव है। इस गीत की पंक्तियां हैं "सूरज सुर्ख बताने वालो/सूरजमुखी दिखाने वालो/...पोर-पोर/ फटती देखू मैं/केवल इतना सा उजियारा/रहने दो मेरी आंखों में/...तार-तार/ कर सकू मौन को/केवल इतना शोर सुबह का/भरने दो मुझको सांसों में/ स्वर की हदें बांधने वालो/पहरेदार बिठाने वालो/...अपना ही/ आकाश बुनूं मैं/केवल इतनी सी तलाश ही/भरने दो मुझको/ पांखों में/मेरी दिशा बांधने वालो/दूरी मुझे बताने वालो।"

सवाल उठता है कि हरीश जी यहां किन बंधनों, वर्जनाओं और निर्देशों से अपनी मुक्ति की मांग कर रहे हैं? कहना न होगा, यह एक सौ टके का सवाल है, जो हरीश जी के परवर्ती सृजन और उनकी रचनाशीलता की ऊर्जा को जानने की कुंजी भी बन सकता है। इसे एक प्रकार से नकार का नकार भी कहा जा सकता है। हमेशा ही हरीश जी की सारी ऊर्जस्विता और उनकी रचनाओं के सौन्दर्य का स्रोत किसी भी रूमानी कवि की तरह तमाम बाधाओं और बंधनों को नकारने में रहा है, लेकिन उम्र के इस नये मुकाम पर अब पुनः वे किस चीज को नकार कर फिर एक बार अपनी मुक्ति की कामना करते हैं, यह सवाल हरीशजी के काव्य के किसी भी अध्येता के लिये काफी तात्पर्यपूर्ण हो जाता है।

इस सवाल के साथ जब हम हरीश जी के परवर्ती रचनाकर्म की ओर नजर डालते हैं तो उसमें साफ तौर पर जो तीन चीजें दिखाई देती है, उन्हें रेखांकित करके ही मैं अपनी इस टिप्पणी की इतिष्री करूंगा। इनमें पहला है, गहरा विषाद- अपना ही आकाश बुनने से पैदा हुए अकेलेपन और सन्नाटे का ऐसा घटाटोप जिसमें सदा उत्साहित रहने वाले, समाज को बदलने का आह्वान करने वाले रचनाकार की सांसे घुट रही है, लेकिन वह इसे इंकार नहीं कर सकता है। इसीलिये यह सन्नाटा भी एक प्रकार के अद्भुत, सम्मोहक सृजन का हेतु बनता है। इसे ‘खुले अलाव पकाई घाटी’ के गीतों में साफ देख सकते है, जब ‘याद नहीं है’ गीत में कवि कहता है- "चले कहां से /गए कहां तक/याद नहीं है/...रिस-रिस झर-झर ठर-ठर गुमसुम/ झील होगया है घाटी में/हलचलती बस्ती में केवल/एक अकेलापन पांती में/ दिया गया या/ लिया शोर से / याद नहीं है/"। इसी संकलन में विशाद के चरम क्शणों का एक गीत है: "टूटी गजल न गा पाएंगे"। "सांसों का/ इतना सा माने/स्वरों-स्वरों/ मौसम दर मौसम/हरफ-हरफ/ गुंजन दर गुंजन/ हवा हदें ही बांध गई है/ सन्नाटा न स्वरा पाएंगे/ यह ठहराव न जी पाएंगे/...आसमान उलटा उतरा है/ अंधियारा न आंज पाएंगे/...काट गए काफिले रास्ता/ यह ठहराव न जी पाएंगे।"

गौर करने लायक बात है कि इस दमघोंटू ठहराव की तीव्र अनुभूतियों के बीच हरीश जी अपने नये संबंधों के विकास और सोच की नयी दिशाओं के निर्माण की ओर प्रवृत्त होते हैं। और ये नये संबंध है अपनी मरुभूमि की धरती के साथ नये संपर्कों के संबंध। "मौसम ने रचते रहने की /ऐसी हमें पढ़ाई पाटी/...मोड़ ढलानों चैके जाए/आखर मन का चलवा/अपने हाथों से थकने की/कभी न मांडे पड़वा/कोलाहल में इकतारे पर/एक धुन गुंजवाई घाटी" या "सुपरणे उड़ना मन मत हार" की तरह के भावबोध के साथ निरंतर रचनाशील बने रहने की अपनी नैसर्गिकता को कायम रखने की जद्दोजहद में ही उनके इन नये संबंधों और विचार के नये क्षेत्रों का उन्मेष होता है। और, हम देखते हैं, सन्नाटे और अकेलेपन के उपरोक्त अनोखे, मन को गहराई तक छू देने वाले गीतों के साथ ही सामने आता है हरीश जी की रचना शक्ति का एक और उत्कृष्ट नमूना - "रेत में नहाया है मन"। "इन तटों पर कभी/धार के बीच में/डूब-डूब तिर आया है मन/...गूंगी घाटी में/ सूने धोरों पर‘ एक आसन बिछाया है मन/...ओठ आखर रचे/ शोर जैसे मचे/ देख हिरणी लजी/ साथ चलने सजी/ इस दूर तक निभाया है मन। /"। धोरों की धरती के सौन्दर्य पर इससे खूबसूरत आधुनिक गीत क्या होगा।

अब तक ‘शहरीले जंगल’ में खोये मन के इस प्रकार अपनी धरती के रेत के समंदर में डूबने-तिरने, उस पर आसन बिछा कर खोजाने का यह सारा उपक्रम अपने ही अतीत से अलगाव से उपजे हरीश जी के सन्नाटे को एक नयी सृजनात्मक दिशा में मोड़ता है और हम पाते हैं "सन्नाटे के शिलाखंड पर"(1982), "एक अकेला सूरज खेले", "आज की आंख का सिलसिला"(1985), "विश्मय के अंशी हैं" (1988) कविता संकलन और "पितृकल्प"(1991) तथा "मैं-मेरा अष्टावक्र"(1999) की तरह की लंबी कविताओं का एक विशाल रचना भंडार।

कहना न होगा कि लगभग अढ़ाई दशकों तक फैली हरीश जी की यह रचनाशीलता दूसरे अर्थों में अपनी जड़ों की तलाश की उनकी लंबी यात्रा का साक्षी है। इसी सिलसिले में भाषा के स्तर पर भी उनकी कविताओं में एक बड़ा परिवर्तन आता है। ‘बांथा में भूगोल’ (1984), "खण-खण उकल्या हूणिया" तथा "जिण हाथां आ रेत रचीजै" की तरह के राजस्थानी भाषा की कविताओं के संकलन सामने आते हैं और हिंदी की कविता भी स्थानीय भाषा और संदर्भों तथा निहायत निजी प्रसंगों से लबरेज होकर खुद अपना एक अलग संसार गढ़ लेती है। इस काल के हरीश भादानी की रचनाएं हिंदी के साधारण पाठक के लिये बहुत कुछ अपनी भाषाई संरचना की वजह से ही जैसे एक अबूझ पहेली बन कर रह गयी हैं।

मजे की बात यह है कि अपनी भाषा, अपनी धरती की स्थानिकता के इस तीव्र आग्रह के साथ अपनी जड़ों की तलाश के हरीश जी के इस रूझान का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू सांस्कृतिक जड़ों की तलाश का रहा है। इसीके उपक्रम में प्राचीन पौर्वात्य साहित्य, वेदों, उपनिशदों और मिथकीय आख्यानों में उनके डूबने-उतरने और शायद कहीं-कहीं उनके रहस्यों में खो जाने का भी रहा है। मिथकों से हरीश जी पहले भी पूरी तरह मुक्त नहीं रहे। बिल्कुल प्रारंभिक ‘सपन की गली’ की रूमानी कविताओं के साथ ही ‘हे शिव प्रथम मनीशी’ की तरह की रचना भी संकलित है। बाद के दिनों में ‘सड़कवासी राम’ और ‘गोरधन’ की तरह के उनके अमर गीत मिथकों के सृजनात्मक नवीनीकरण के महत्वपूर्ण उदाहरण है। लेकिन "विस्मय के अंशी हैं" के एक अध्याय में जिस प्रकार वेदों की कविताओं का उल्था किया गया है और अभी हाल में प्रकाशित "अखिर जिज्ञासा" में उपनिषदों और धर्म-ग्रंथों की प्राचीन कथाओं पर जिसप्रकार की प्रवचनकारी जिज्ञासाएं व्यक्त की गयी है, यह उनके व्यक्तित्व में एक सर्वथा नया संयोजन कहलायेगा। हरीश जी के इस नये दौर के गीत, "जो पहले अपना घर फूंके" का वह हिस्सा जिसमें राम, कृष्ण, बुद्ध, कबीर और रवीन्द्रनाथ के रास्ते पर चलने का आह्वान है, सांस्कृतिक जड़ों की खोज में लगी खास (टिपिकल) रचनाशीलता की ही उपज हो सकती है। लेकिन सच कहा जाए तो हरीश जी की इस सांस्कृतिक जड़ों की खोज की यात्रा से अभी तक कुछ ऐसा अभिनव और अनूठा सृजन सामने नहीं आया है जो उनके पूर्व के सभी दौरों की चुनिंदा अमर रचनाओं की भांति स्फुर्लिंग सी चमकती हुई पाठकों के ह्नदय में बसे और उसे प्रकाशित करें। जड़ों की जड़ताओं प्रति अपनी तमाम शंकाओं के बावजूद उनसे ऐसी श्रेष्ठ रचना की हमारी प्रतीक्षा बनी रहेगी।

आज का समय वैश्विक चुनौतियों का समय है। आज के रचनाकार से यह एक दूसरे स्तर की बौद्धिक प्रखरता की उम्मीद करता है। इन चुनौतियों का जवाब किसी उदासीनता या अतीतोन्मुखी खोह में खोजना सरल हो सकता है, सही नहीं हो सकता। हरीश जी की इस 75वीं वर्षगांठ के मौके पर हम उनके रचनात्मक आवेग में और भी ज्यादा तीव्रता की कामना करते हैं। उनके जिस आवेग और विवेक ने अब तक अनेक प्रकार के लबादों को उतार फेंकने का साहस दिखाया है, बार-बार अपनी प्रासंगिकता को साबित किया है, वही भाव-प्रवणता और आलोचनात्मक विवेक उनमें आगे भी बना रहे, यही हमारी प्रार्थना हैं।

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

सपन की गली



सत्य का आभास

लगता है बहुत कड़ुवा
अन्तर के धूमिल सत्य का आभास,
क्योंकि मन तो हो गया है
युग-पुरानी परिधियों का दास।
संस्कारों के खड़ाऊ पहन कर
मन का पुजारी जा रहा है,
ताड़-पत्तों पर लिखी
किताबों की समाधि पर पहरा लगाने;
क्योंकि अब तो आत्मा की
हो गई बूढ़ी अवस्था ;
थम गई है
रग-शिराओं की रवानी,
जम गया है खून
जैसे पर्वती-सरिता
किसी हिमपत से ।
रह जाये ना
बिना अर्थ परिवर्तन,
मिट जये ना
कहीं मनुज की क्रियाशीलता,
इसलिये
हाथ में अब वह हरकत आ जाये
जो धरती की
व्याधि ग्रस्त परतें उधार कर
मिट्टी नई उलीचे,
नई बरखा का
पानी भिगो-भिगो कर
लोंदे नये बना दे,
नये-नये सांचों में
सजा सँवार कर
रूप नया ही दे दे
किसी निरूपम-निष्कलुष सृजन को !




तुम जागो मुस्काओ
नये भोर की वेला साथी -
तुम जागो - मुस्काओ ।
सपनों के विषधर समेट कर
लौट चली विष-कन्या रजनी,
अँधियारा सूने जादू की
बाँधे चला पिटारी आपनी।

बहुत दूर से आई है परभाती
निंदीया के दरवाजे ;
मोह बँधी पलकें उधार कर -
उठो और इठलाओ ।

देखो तो हो रहा गुलाबी,
उन्मन आसमान का आँगन
किरणें खोल रही धीरे से
लौट चली विष-कन्या रजनी,
सोई कलियों के मधुरानन

खेल रही है फूलों के आंचल में
भीनी गूँज भँवर की
उड़े पंछियों के कलरव सा -
तुम स्रुर साधो, गाओ।

नीचे का सूरज उठ आया
पर्वत की सीमा से ऊपर,
पीती है प्यासी हरियाली
धूप दूधिया हँस हँस जी भर।

सूनी राहों पर रुन झुन पायल की
चहल-पहल कोलाहल ;
कल की व्यथा भूल कर साथी -
नव आशा सहलाओ।



घृणा की घास


देखो !
अविश्वास का यह काला पहाड़,
जिसकी टेढ़ी-मेढ़ी फटी हुई रखों में
उगी हुई है घास घृणा की।
यह इतना ऊँचा
अतना कठोर कि
छिल जायेंगे तेरे नन्हें पांव,
और थक जायेगी
हर साँस नेह की।
इस कांटेदार घास में
उलझ-उलझ कर फट जायेगा
नभ-गंगा सी ममता का आँचल।
आ इस पहाड़ के,
एक ओर तू, एक ओर मैं,
आँसू की दारें
बनकर टकरायें ;
यह सही, कि
यूं मिट जायेगा
एक मुइट जायेगा
एक नहीं, सौ सौ घड़ियों का जीवन ;
मगर एक दिन
धरती का उर फट जायेगा
अविश्वास का यह काला पहाड़,
और कँटीली घास घृणा की डूब जायेगी !


मेरी कविते !


मेरी कविते ! तू वैभव की इन्द्र सभा में
बिकने कहीं चली मत जाना !
यह दुनिया तो रंग विरंगे
वैभव का दरबार है,
सस्ते-मंहगे लेन-देन का
बहुत बड़ा बाजार है।
हीरे मोती सब दरबारी
सोना ही सरदार है,
कुटनी चाँदी के हाथों में
कीमत का अखबार है।
यश के लोभी डोम खड़े हैं भीड़ जमाने-
मोटे-मोटे ढोल बजा कर ;
मेरी कविते ! तू इस सतरंग जाले में -
आकर कहीं छली मत जाना।
माँग रहे हैं कितने गाहक
तनी गुलाबी डोर को,
सब खरीदने को आकुल हैं
सावन की मधु-लोर को
बाँध रहे हैं ये भावों में
इन्द्र धनुष के छोर को,
आँक रहे हैं लिये कसौटी
ये संध्या की कोर को ।
तोल रहे हैं झलर मलर तारों की आभा-
ये अपनी मोती माला से ;
मेरी कविते ! दुकानों में सजी वासना,
अनकी गली चली मत जाना
संभव है बिक जाना तेरे
इस नीले आकाश का,
संभव है बँध जाना तेरे
रागों के मधुमास का!
थैली में छुप जाये शायद
बदरा तेरी आस का,
सूखा ही रह जाये आँगन
तेरे उर की प्यास का ।
ये सब व्यापारी हैं, सूदखोर, संगदिल हैं-
मेरी इस पीढ़ी के आदमी ;
मेरी कविते! ये तो मोहित भरी उमर पर
इनके कहे ठगी मत जाना।
शपथ तुम्हें है मेरी कविते !
गर बेचो अरमान को,
अपना सब कुछ खो देना
पर मत कोना ईमान को।
साधे रहो अन्त तक अपने
विश्वासों के बाणों को,
सौ सौ बार निछावर कर दो
सत पर अपने प्राण को।
मैं भी श्रम-सीकर में आशा घोल-घोल कर
नये भोर के गीत लिखूंगा ;
मेरी कविते ! तेरी तो ये ही राहें हैं-
दूजी डगर चली मत जाना।






सपन की गली से , प्रकाशक:- जुही-कुँज, 42, गनेशचन्द्र एवेन्यू, कलकत्ता- 700013 . संस्करण : 1961



बुधवार, 23 जुलाई 2008

सड़कवासी राम से


सड़कवासी राम !

न तेरा था कभी, न तेरा है कहीं
रास्तों-दर-रास्तों पर
पांव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन !
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम
सड़कवासी राम !
सोच के सिरमौर, ये दासियो दसानन
और लोहे की ये लंकाएं
कहां है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
ये चितेरे
अलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलें शाम
सड़कवासी राम !
पोर घिस-घिस
क्या गिने चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प सांसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फैंके गये है
एषणाओं के पहरुए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख बामन-सी बड़ी यह जिन्दगी
करली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम
सड़कवासी राम !

आदमी की आंखों में

आंखों में घृणा - होठ पर चेंटी लहू की भूख,
हाथ में हथियार लेकर
आदमी में से निकलता है जब
आदमी जैसा ही
मगर आदिम
तभी हो जाता है
उसका ना कातिल - जात कातिल
और उसका धर्म - सिर्फ हत्या।

वह पहले
अपने आदमी को मार कर ही
मारता है दूसरे को

आदिम के हाथों
आदमी की हत्या का दाग
आदिम को नहीं
आदमी की दुनिया को लगा
फिर लगा
फिर-फिर लगा है।

सोच के विज्ञान से
धनी हुए लोगो
लहू के गर्म छीटों से
इस बार भी
चेहरा जला हो
गोलियों ने तरेड़ी हो
मनिषा पर पड़ी
बर्फ की चट्टान तो आओ
अपने ही भीतर पड़े
आद्फिम का बीज ही मारें
पुतलियों में आ बैठती
घृणा की पूतना को छलनी करें
आंखों को बनाएं झील
और देखें.... देखते रहें
आदमी की आंखों में
आदमी ही चेहरा !

कैसे दे देते

जीना बहुत जरूरी समझा
इसीलिए सारे सुख
गिरवी रख
लम्बी उम्र कर्ज में ले ली
लेकिन
जितने सपने साथ निभने आये
हमसे भी ज्यादा मुफलिस निकले वे
जैसा भी था
सड़काऊ था दर्द मलंग
हमारा था
लेकिन यादें तो बाजारू निकली
खुद तो नाची
टेढ़ाकर-कर हमें नचाया
गली-गली बदनाम कर दिया
कई-कई आए
अपने होकर
सिर्फ सूद में ही ले लेने
आखर खिला-पिलाकर
पाले-पोषे गए इरादे
ये अपने थे
या थे शाइलाक ?

उजियारा पी
पगे इरादों को ही पाने
उथल दिया सारी धरती को
काट दिए पर्वती कलेजे
रोकी सब आवारा नदियां
बांध दिया सागर कोनों में
इतना जीने बाद मिले वे
सिर्फ सूद में ही कैसे दे देते ?
कर्ज उमर का
फक़त इसलिए लिया था
कागज पर लिखवाए गए
सभी समझौते तोड़ें
सूद चुकाने का कानुन जलाएं
अपने हाथों
लिखे इबारत
जिसे हमारे बाद
जनमने वाली पीढ़ी
अपने समय मुताबिक बांचे।



सड़कवासी राम से, प्रकाशक: धरती प्रकाशन, गंगाशहर,
बीकानेर-334001 संस्करण : 1985