
और ईसा नहीं
आदमी बन जिएं
सवालों की
फिर हम उठाएं सलीबें
बहते लहू का धर्म भूल कर
ठोकने दें शरीरों में कीलें
कल हुई मौत को
दुहरा दिए जाने से पहले
तेवर बदलते हुए आज को देख लें
बहुरूपियों की नक़ाबें उलटने
हक़िक़त को फुटपाथ पर
खोलने की सजा है ज़हर हम पिएं
सुकरात को
साक्षी बना देने से पहले
तेवर बदलते हुए आज को देख लें
साधु नहीं आदमी बन जिएं
रची फिर न जाएं अधूरी ऋचाएं
बांचे न जाएं गलत फ़लसफ़े
जिन्दगी का नया तर्जुमा
कर लिए जाने से पहले
इतिहास का
आज की आंख से
सिलसिला जोड़ दें ।
गलियों-घाटियों
गलियों-घाटियों
भटके दुखों का एक लम्बा काफ़िला
लेकर चले हैं
सामने वाली दिशा की और
ठहरने का नहीं है मन कहीं भी
धीरज भी नहीं है
मुड़ कर देख लें
न कोई गुबार
करना ही नहीं है
डूबती आहट का पीछा
चौराहा थामे खड़े ओ अकेले
देख तो सही
आंखें जा टिकी
नीलाभ पतों पर
हवा में घुल गई है स्संस
सूघे छोर सारे
हाथ लम्बे हो
पोंछने लग गये हैं कुहासा
झरोखों के बाहर
दूर-दूर पसरे नगर तक
भीड़ के समुन्दर में
भीड़ के समुन्दर में
बचाव के उपकरण पहने
न रहूं
गोताखोर सी एकल इकाई
उतरता चला जाऊं
अत्लान्त में समाने
टकरा जाऊं तो लगे
भीतर दर्प की चट्टान दरकी है
अतेने बड़े आकार में
अतनी ही हो पहचान मेरी ।
मांस की हथेलियों से
मांस की हथेलियों से पीटे ही क्यों
जड़ाऊ कीलों के किवाड़
खुभें ही
रिस आया लहू झुरझुराया मैं
कितनी दुखाती है जगाती हुई यह नींद
पोंछा है खीज कर
फटी कमीज से इतिहास
अक्षरों की छैनियों से तोड़ने
लगा हूं
मेरे और मेरी तलाश के बीच
पसरा हुआ जो एक ठंडा शून्य
[आज की आंख का सिलसिला से]
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