Some Books of Shri Harish Bhadani

Some Books of Shri Harish Bhadani

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

मेरे पिता : हरीश भादानी



सरला माहेश्वरी



अपने पिता, हरीश भादानी के बारे में सोचती हूँ तो बड़ी असमंजस में पड़ जाती हूँ। पिता की तस्वीर में आमतौर पर बच्चे अपने बचपन की स्मृतियों के ही रंग भरते हैं। लेकिन मैं जब अपने बचपन के दिनों की याद करती हूँ और उसमें अपने पिता को ढूंढती हूँ, तो मन के कैनवस पर कुछ धुंधली रेखाओं के अलावा कुछ नहीं उभरता। बस एक अहसास, एक अनुभूति दिल-दिमाग पर तारी हो जाती है। घर से आमतौर पर अनुपस्थित रहने वाले अपने पिता को घर के बजाय बाहर के विराट से ही ज्यादा जाना। कभी-कभार जब पिता के साथ बाहर, शहर में निकलने का मौका मिलता तो बस यही देखते कि उनसे मिलने वाले लोग कदम-कदम पर उन्हें रोक कर दुआ-सलाम करते, घर से बाजार तक की 10-15 मिनट की दूरी हम कभी आध घंटे तो कभी 45 मिनट में तय करते हुए बाजार तक पहुँचते जहां से हमें तांगा लेना होता था। हम बहनें उनके पीछे चलती हुई यह सब देखती रहती। तांगे वाले भी उन्हें देखते ही मनुहार करते और वे बिना कुछ पूछे तांगे पर सवार होकर उनसे खैरियत पूछते हुए बतियाते रहते। मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी किसी तांगे वाले से उन्होंने दाम ठहराये हों, हमेशा कुछ ज्यादा ही दाम देकर उतर पड़ते। उनके साथ कभी-कभार बाहर निकलने और घर में उनके बंधु-बांधवों के अनवरत आगमन ने हमें इतना जरूर समझा दिया था कि हमारे पिता एक आम-फहम इंसान नहीं हैं, वे एक बड़े आदमी हैं जिनकी लोग इतनी इज्जत करते हैं। इस पिता के मेरे अपनों का दायरा इतना बड़ा था कि उसमें उनके अपने जाये हम-हरफों का अलग से कोई स्थान या अर्थ ही नहीं था। घर में जमने वाली महफिलों में आये अपने रचनाकार मित्रों से जब हम बहनों का परिचय कराने की नौबत आती तो पिता अक्सर गड़बड़ा जाते, न तो उन्हें हमारी स्कूलों का नाम याद रहता और न ही यह याद रहता कि हम कौन सी कक्षाओं में पढ़ रहे हैं। लेकिन पता नहीं उनका यह न जानना हमें कभी बुरा भी नहीं लगा। शायद यह उसी गर्व-बोध का अहसास था कि हमारे पिता एक दूसरे तरह के इंसान हैं। बचपन में ही उन्हें कवि-सम्मेलनों में मजमा जमाये हुए देखा करते थे और लोग उनके गीतों पर वाह-वाह करते रहते थे। इसलिए पिता की छवि हमारे सामने एक खास इंसान की थी, क्या हुआ जो उसे अपनी संतानों को देने के लिये वक्त नहीं हुआ करता था। और, हमारा हवेलीनुमा घर भी क्या घर था। उसे घर नहीं बल्कि एक सराय ही कहा जा सकता था, जहां अनगिनत लोग अपने-अपने कामों से आते, कोई महीना-दो महीना तो कोई छः महीना-साल भर भी रह जाते और फिर चल देते। बाहर से आकर रहने वाले ये मेहमान पिताजी के इतने करीबी दिखाई देते कि हमें लगता था कि इस घर पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा, बल्कि हमसे कहीं ज्यादा।
आज सोचती हूँ तो लगता है शायद पापाजी की इस घड़त, वसुधैव कुटुंबकम वाली मानसिकता का राज उनके अपने बचपन की कटु जिंदगी में छिपा हुआ था। एक ऐसा बच्चा जिसके जन्म के फौरन बाद ही बाप संन्यासी हो गया था और मां-पति के वियोग में कुछ ही महीनों में चल बसी हों, ऐसे बकौल पोषक दादाजी, अपसगुनिये बच्चे का बचपन कैसा हो सकता था, इसका बयान खुद उन्होंने इन शब्दों में किया हैः

"सुनो, हीये पर रख कर हाथ/हवेलीदार प्रजापतियों ने/लग गयी छूत की तरह उठाकर/पहनाई मुझे एक कंठी/जड़ी थी जिसमें एक छोटी सी थेगड़ी/गुदा हुआ था उस पर-ऋंग-क्लिंग की लिपि में/ "अपसगुनिया"/ किटकिटते रहते थे उनके दांत/आया है दो को निकालकर/ 'कुबुद्धि' तो निकलेगा ही/ ऐसे ही पालनों में झूल-झूलता/गीले से सूखा/सूखकर गीला होता हुआ/हो ही गया मैं/पांच फुटा कीकर।"

सामंती संस्कारों के गारे-इंट से बनी हवेली में अनचाहे उग आये इस पांच फुटे कीकर ने शायद बहुत पहले ही इसकी सारी अंतरकथा को जान लिया था और यह निश्चय कर लिया था कि वह इस बंद हवेली की हर ईंट को उखाड़ देगा। इसी कविता में वे एक जगह कहते हैः


"हम वह फावड़ा, कढ़ाई, पांव/ जो अतलांत तक जाकर/ समाधि दें/झंखाड़ मलबे को,/संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण/कुछ भी हैं/तो हम केवल कुम्हार/ तब तक फिराएं चाक/ बन जाए यह धरती ही/ रोशनी से पुता/ वातायनी घर,/ हमारी अंगुलियों की छुअन से होता रहे/ अहल्या का रचाव सीता में,/ हमारा मन हिलकता पारदर्शी जल/ दिखे-देखें एक सा हीं।"


बचपन की अपनी उस हवेली की झूठी, सामंती मर्यादाओं को गेंती और फावड़े से झाड़-बुहार कर हवेली से बाहर एक नया 'वातायनी' घर बनाया था पिता ने। इस वातायनी घर के पिता ने अपनी संतानों के लिये कोई निश्चित अनुसरणीय रास्ता तैयार नहीं किया था। दिखे-देखें एक सा ही-मन वाले पिता के लिए हम-आजिये अपना आज लिखने को मुक्त थे।
'वातायनी घर' से 'वातायन' की याद आ गयी। लगातार 14 वर्षों तक उनके संपादन में निकलने वाली इस पत्रिका के साथ जुड़े उनके सहयोगी मित्र ही हमारे घर के सदस्य थे। पत्रिका के काम अथवा पता नहीं किन जरूरतों की वजह से लगातार बाहर रहने वाले पिता की अनुपस्थिति में उनके ये मित्र ही हमारे अभिभावक बन गये थे। कई नाम याद आते हैं, लेकिन एक नाम जिसका साथ दूर तक रहा, वे सरल काकाजी आज भी भूलते नहीं। माँ-बाप के प्यार से महरूम तथा जिंदगी के उबड़-खाबड़ रास्तों पर अकेले ही अपना रास्ता बनाने को छोड़ दिये जाने वाले मेरे पिता को इसलिये शायद अपने अनुभवों के चलते ही यह जरूरी नहीं लगा कि अपनी संतानों के लिये कोई निश्चिंत रास्ता बनाने का कष्ट उठाए। बड़े से हवेलीनुमा घर में दादा और पड़दादा के बड़े से नाम के साथ रहने वाले उनके वंशजों के पास नाम और इज्जत तो बहुत थी, लेकिन उस नाम और इज्जत को बचाये रखने में हम बच्चों की हालत खस्ता हो जाती। पिता को अपने दादा से जो भी संपत्ति मिली थी, उसे बड़ी बेरहमी से लुटाकर फक्कड़ होने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा। दादाजी के समय के तांगे-इक्के, हवेलियां, दुकानें सब बिकती गयी। और रह गयी सिर्फ यह हवेली। हम बहनों का नाम भी बड़ी स्कूल से कटवा कर मोहल्ले की एक छोटी सी पाठशाला में लिखवा दिया गया था। घर से प्रायः अनुपस्थित रहने वाले पिता का फर्ज कुछ हद तक मां ने ही निभाया। मुझे याद पड़ते हैं वे दिन जब स्कूल में फीस देने का वक्त होता तो इतना डर लगता कि क्या होगा। मां को दो-तीन दिन पहले बोलना पड़ता था और अक्सर मां कभी अपना कोई गहना बेचकर या गिरवी रख कर हमारी फीस अदा करती। मोदी की दुकान का बढ़ता जाता बिल हम बहनों को फिर उसकी दुकान तक जाने से डराता रहता। इसी तरह से चलते संसार में एक दिन पिताजी का अवतरण होता, थोड़े दिनों के लिए फिर कुछ पटरी लाईन पर आती, "दाना आया घर के अंदर बहुत दिनों के बाद" की नागार्जुन की पंक्ति को चरितार्थ करते हुए थोड़े दिन चैन के बीतते और फिर शायद शुरू हो जाता अभाव का एक और वृत्त। इस अभाव के संसार की मांगों से उत्पन्न खीज और बेचैनी ने ही शायद पिता से लिखायी होगी "बिना नाप के सीये तकाजे सारा घर पहनाए" की तरह की पंक्ति।
बहरहाल, मजे की बात यह है कि ऊपरी तौर पर हमने अपने पिता को जैसा देखा उसमें चाहे पैसा हो या न हो, दूसरों के लिये उनकी दरियादिली में कभी कोई कमी नहीं दिखाई दी। वो वाकया मुझे कभी नहीं भूलता जब पिता की जेब में आखिरी 50 रुपये थे और एक रिश्तेदार घर में आ टपके, पता नहीं उनकी जरूरत शायद हमसे बड़ी रही हो, पिताजी ने मां की इस बात को नजरअंदाज करके कि घर में तेल नहीं है खाना कैसे बनेगा, रुपये उस आदमी के हवाले कर दिये। पिताजी की इस आदत से पूरे परिवार को कई बार काफी तकलीफें उठानी पड़ती थी। कुछ लोग थे जो इस बात से बेखबर होकर कि हवेली पूरी तरह खोखली हो चुकी है, अपनी जरूरतों के चलते प्रायः उनसे पैसा मांगने आते थे।
हांलाकि यह सच है कि पिताजी का घर सिर्फ बीकानेर की हवेली में ही नहीं था। इस बीच विभिन्न शहरों के परिवारों में उनके अस्थाने बन गये थे, जहां वे महीनों टिके रहते, और वहां उनके लिए प्यार, सम्मान सब था। मुम्बई और कोलकाता के घर ने उनका परिचय आधुनिक महानगरीय जीवन से कराया, जीवन के लिए संघर्ष के कई नये रूपों से उनका साक्षात्कार हुआ, ‘सीटियों से सांस भरकर भागते बाजार मिलों, दतरों को रात के मुर्दे, मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘क्षण क्षण की छैनी से काटो तो जानूं’ जैसी कई सशक्त रचनांए यहीं लिखी गयी। आज जब गौर करती हूँ तो मुंबई-कोलकाता प्रवास के उस काल को पिता की रचनाशीलता का सबसे स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। कोलकाता के परिवार ने तो उन्हें सिर्फ प्यार और सम्मान ही नहीं दिया बल्कि जीने का एक नया दर्शन भी दिया। रमन माहेश्वरी के रूप में उन्हें ऐसे दोस्त मिल गये थे कि कल का रूमानी प्रेम और भावनाओं में डूबा रहने वाला कवि मार्क्सवादी दर्शन से लैस होकर एक सशक्त जन-कवि के रूप में सामने आया और हिंदी के जन-गीतों को एक नई ऊंचाई और सौन्दर्य प्रदान किया। कोलकाता के इस परिवार में मुझे अपने एक नये पिता का रूप नजर आया। पहली बार जब घूमने के लिये ही कोलकाता इस परिवार में आयी तो यह देखकर दंग रह गयी कि मेरे पिता के सभी पुराने-नये गीत इस परिवार के लोग सामूहिक रूप में गाते थे। अपने पिता का यह रूप अपने घर में मैं सिर्फ कवि गोष्ठियों में ही देखती थी। घर लौटकर सारे गीत मैंने याद कर डाले यह सोचकर कि मुझे तो अपने पिता के गीत-कविताएं याद होने ही चाहिये। कोलकाता के इस परिवार ने सिर्फ पिता को नहीं, हमारे पूरे परिवार को ही जैसे एक नया जीवन दे दिया था। शायद इस भरे-पूरे परिवार ने ही उन्हें एक पति, एक पिता का भी बोध दिया। बाद में, मेरी शादी के साथ इस परिवार से हमारा हमेशा का एक अटूट रिश्ता कायम होगया।
मार्क्सवाद और पार्टी से पापाजी के संपर्क के साथ ही हमारे घर में राजनीतिक हलचलों का एक नया रूप सामने आया। '72-73' का जमाना था। बीकानेर में विश्वविद्यालय की स्थापना का आंदोलन एसएफआई के नेतृत्व में शुरू हुआ था। हम भी कालेज में दाखिल हो चुके थे। इस आंदोलन ने ज्यों-ज्यों तूल पकड़ना शुरू किया, सरकारी दमन भी उसी अनुपात में बढ़ने लगा और उसके साथ ही हमारा घर भारी उत्तेजना का केंद्र बन गया। पिताजी ने ही हमें इस आंदोलन में शामिल होने, एसएफआई से जुड़ने के लिये प्रेरित किया और उसी समय मोहता चैक पर छात्राओं की एक सभा को संबोधित करने का रोमांचक अनुभव मैं कभी भुला नहीं सकती। किसी भी आम सभा के मंच से राजनीतिक भाषण देने का वह मेरा पहला अनुभव था।

हम दो बहनों की शादी ने पिता को अंतिम हवेली भी बेच देने का मौका दे दिया, और इस प्रकार हमारे परिवार की शान-शौकत का यह आखिरी नकाब भी उतर गया। हवेली के बगल में ही एक छोटे से मकान में हमने डेरा डाला। हवेली से एक छोटे से घर तक के इस सफर में थोड़े से काल के लिये किराये के मकान में भी रहना पड़ा। पिता के सुख-दुख की साथी वह 'वातायन' पत्रिका पहले ही बंद हो गयी थी जिसके मंच से उन्होंने इस छोटे से शहर को साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बना दिया था। इसी के चलते बाहर से छोटे-बड़े साहित्यकारों का आगमन होता ही रहता था। अज्ञेय को बचपन में पहली बार बीकानेर में अपने घर में ही देखा था। उनकी वह शांत, सुंदर गरिमामय छवि आज भी आंखों में बसी हुई है। देखते ही देखते उनके सभी दोस्त इधर-उधर बिखर गये। किसी तरह एक छोटे से प्रेस के सहारे सरल काकाजी और हमारा घर चलता रहा। ‘संकल्पों के नेजों को और तराशो, और तराशो का ओज अब चुकने लगा था, और ‘75 के बाद का सन्नाटा, आज सोचती हूँ तो शायद पिता के जीवन का वह सबसे एकाकी और कष्टभरा काल था। काट गये काफिले रास्ता, यह ठहराव न जी पाएंगे, टूटी गजल न गा पाएंगे, सन्नाटा ना स्वरा पाएंगे और इस तरह की रचना यात्रा का एक और दौर शुरू होता है। कुछ जीवन की अपनी मजबूरियों ने और कुछ जीवन के हर रूप को देखने-समझने की चाहत ने इसी बीच उनका रिश्ता राजस्थान के गांवों से जोड़ दिया जहां वे साक्षरता अभियान में अपनी रचनात्मक शक्ति के साथ जुड़ गये। गांवों की इस रेतीली धरती ने एक बार फिर उन्हें नया जीवन दिया, इस रेत में उनका मन ऐसा नहाया कि अब इन्हीं सूने धोरों पर आसन बिछा कर रम गये। रेत में नहाया है मन जैसी मरुभूमि के सौंदर्य और उसके जीवन संघर्ष के सतरंगी रूप को उभारने वाली अद्भूत रचनाएं हमारे सामने आती हैं। मुझे याद आते हैं जनवादी लेखक संघ के वे सम्मेलन जब पिताजी से बार-बार ये मांग की जाती थी कि वे इन रचनाओं को सुनाएं। इसी दौर में राजस्थानी भाषा में लिखे गये उनके 'हूणिये' भी राजस्थान में लोगों की जुबान पर चढ़ गये थे। मिट्टी से इस जुड़ाव के साथ ही उनका रचनाकार वेदों और उपनिषदों की तरह भी जाता है। कुछ मोती वहां से भी तलाशने की कोशिश करता है। "मौसम ने रचते रहने की ऐसी हमें पढ़ाई पाटी" के संकल्प के साथ पिताजी लिखते रहें और लिखते रहें तथा साहित्य संसार को उनकी यह सौगात ही उनकी संतानें अपने पिता की धरोहर समझ कर संभाल कर रखेंगी।